मंगलवार, 28 जनवरी 2014

जीने की कोशिश जारी है............चंद्रसेन विराट

प्रिय किसको भुजपाश नहीं है
इसकी किसे तलाश नहीं है।

जीने की कोशिश जारी है
जीने का अवकाश नहीं है।

अनगढ़ता-सौंदर्य मूर्ति की
तीखी तेज तराश नहीं है।

बँट तो चुकी धरा यह पूरी
बँटा अभी आकाश नहीं है।

फूल नुमाइश में सब शहरी
इनमें ग्राम्य पलाश नहीं है।

चौंके सारे मित्र आधुनिक
मेरे घर में ताश नहीं है।

मेरा कत्ल हुआ, मिल पाई
लेकिन मेरी लाश नहीं है।

सृजन नहीं है किस विनाश का
किस निर्मिति का नाश नहीं है।

जला रही वह आग कि जिसमें
लपटें मगर प्रकाश नहीं है।

वह भी क्या उपलब्धि कि कोई
कहने को शाबाश नहीं है।

इतना मानव-पतन किंतु कवि
दुःखी जरूर, हताश नहीं है।

-चंद्रसेन विराट 

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