"आसमान में देखा है
वो कमर" ................... !!
"हुं" ..................... !!
"कितना भोला दिखता है न
श्वेत, सुन्दर, शीतल" ........... !!
"हुं" ..................... !!
"इसके आते ही क्यूँ
मन में वेग होता है" ................ !!
"उन्न" .............. !!
"ये पूरा होता है तो
क्यों मुझमें उन्माद आता है" ............ !!
"क्या कहते हो
तुमको भी
मैं तो चुप ही थी
पता नहीं तुम क्या सोचोगे" ................ !!
"कहती तो, कभी अपनें मन की बात
क्यों न बनती हो तुम, मरासिम" ................ !!
"मैं, मरासिम".................... ??
"हाँ ! मरासिम !
श्वेत, सुन्दर, शीतल" ................ !!
"ओफ, ओ "...............!!
"अंतर है थोड़ा सा बस
आसमान के और मेरे मरासिम में " ............ !!
"हुं, हुं " ....................... !!
"तुम्हारी धवल चाँदनी में
मन रुकता है, उद्वेग थमता है" .............. !!
"बाप रे" ....................... !!
"वो देखो, इस नदी की लहरों को
कल - कल, कुल - कुल कर बलखाती
तुमको ही तो देख रही हैं" ........................... !!
"......................."
"मैं हूँ, नदी है, तुम हो:
और है दूर, वो सुनहरा चाँद
कितना शांत है सब
शीतल ! निर्मल ! तुम से ..................... !!
"चलो ना, अब चलते हैं
अन्धेरा भी आ गया है
नरभक्षी अब निकलेंगे
हम कैसे पहचानेंगे
आदमी की खाल पहन
हमसे, तुमसे ही दिखते हैं
चलो ना, अब चलते हैं" ......... !!
"ह्म्म्मम्म
काश ! होती धवल चाँदनी
इस धरती पर, तुमसी
मरासिम" ...................................... !!
उत्पल कान्त मिश्र
मुंबई, १५:१२
१९/११/२०११
http://utpalkant.blogspot.in/2011/10/blog-post_19.html
सुन्दर ...
जवाब देंहटाएंअलग अंदाज़ की रचना ... लाजवाब ...
जवाब देंहटाएंअलग और अच्छा अंदाज़ है
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