रविवार, 12 जनवरी 2014

बुलबुल को क्या सुने कोई उड़ जाते हैं हवास....मीर तकी `मीर’



अब की हज़ार रंग गुलिस्तां में आए गुल
पर उस बगैर अपने तो जी को न भाए गुल

नाचार हो "चमन में रहिए" कहूं जब
बुलबुल कहे है "और कोई दिन बराए-गुल"

बुलबुल को क्या सुने कोई उड़ जाते हैं हवास
जब दर्दमंद कहते हैं दम भर "हाय गुल"

क्या समझें लुत्फ़ चेहरों के रंगो-बहार का
बुलबुल ने और कुछ नहीं देखा सिवाए गुल

या वरफ़ उन लबों का ज़बाने-कलम पे "मीर"
या मुंह में अंदलीब के थे बर्ग-हाए-गुल

-मीर तकी `मीर’
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बराए-गुलः फूल(प्रियतमा), वरफ़ः प्रशंसा
अंदलीबः बुलबुल, बर्ग-हाए-गुलः फूलों की पंखुड़ियां
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मूल नामः मुहम्मद तकी
जन्मः 1724
अवसानः 1810
 


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