ये उम्र तान करके सोए हैं,
थकान पांव-भर जो ढोए हैं।
किसी सड़क पे नहीं मिलती है,
सुबह जो गर्द में ये बोए हैं।
लोग कहते हैं कारवां चुप है,
सराय धुंध में समोए हैं।
नाव कब तक संभालते मोहसिम,
पहाड़ भी जहां डुबोए हैं।
रहन की छत है, ब्याज का बिस्तर,
न शिकायत है, न ही रोए हैं।
फफोले प्यार के निकल आए,
न जाने जिस्म कहां धोए हैं।
न कोई खौफ है अंधेरों से,
न कोई रोशनी संजोए है।
एक मुर्दा शहर-सा मौसम है,
एक मुर्दे की तरह सोए हैं।
ये कहानी कहीं छपे न छपे,
कलम की नोक हम भिगोए हैं।
-प्रेमजी (अप्रवासी भारतीय)
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