गुरुवार, 30 जनवरी 2014



Photo: मुझे तोहमत कोई देकर जुदा होता तो अच्छा था 
कि हममें से कोई एक बेवफा होता तो अच्छा था .....

तड़प नज़दीक आने की दिलों में उम्र भर रहती 
हमारे बीच थोडा फासला होता तो अच्छा था ........

बज़ाहिर शक़्ल पर मेरी बहुत से झूठ लिक्खे थे 
मेरे भीतर कोई आकर मिला होता तो अच्छा था ......

समझती सब थी तेरी बातों से,आँखों से,चेहरे से 
मगर ऐ काश तूने कह दिया होता तो अच्छा था.......

लतीफों का चलन,बदहाली से दम तोड़ते अशआर.....
मैं एक शायर न होकर मसखरा होता तो अच्छा था..........
(नए मरासिम में प्रकाशित)

                     सचिन अग्रवाल

मुझे तोहमत कोई देकर जुदा होता तो अच्छा था

कि हममें से कोई एक बेवफा होता तो अच्छा था  


तड़प नज़दीक आने की दिलों में उम्र भर रहती

हमारे बीच थोडा फासला होता तो अच्छा था 


बज़ाहिर शक़्ल पर मेरी बहुत से झूठ लिक्खे थे

मेरे भीतर कोई आकर मिला होता तो अच्छा था 


समझती सब थी तेरी बातों से,आँखों से,चेहरे से

मगर ऐ काश तूने कह दिया होता तो अच्छा था


लतीफों का चलन,बदहाली से दम तोड़ते अशआर

मैं एक शायर न होकर मसखरा होता तो अच्छा था


(नए मरासिम में प्रकाशित)


सचिन अग्रवाल

 


मंगलवार, 28 जनवरी 2014

जीने की कोशिश जारी है............चंद्रसेन विराट

प्रिय किसको भुजपाश नहीं है
इसकी किसे तलाश नहीं है।

जीने की कोशिश जारी है
जीने का अवकाश नहीं है।

अनगढ़ता-सौंदर्य मूर्ति की
तीखी तेज तराश नहीं है।

बँट तो चुकी धरा यह पूरी
बँटा अभी आकाश नहीं है।

फूल नुमाइश में सब शहरी
इनमें ग्राम्य पलाश नहीं है।

चौंके सारे मित्र आधुनिक
मेरे घर में ताश नहीं है।

मेरा कत्ल हुआ, मिल पाई
लेकिन मेरी लाश नहीं है।

सृजन नहीं है किस विनाश का
किस निर्मिति का नाश नहीं है।

जला रही वह आग कि जिसमें
लपटें मगर प्रकाश नहीं है।

वह भी क्या उपलब्धि कि कोई
कहने को शाबाश नहीं है।

इतना मानव-पतन किंतु कवि
दुःखी जरूर, हताश नहीं है।

-चंद्रसेन विराट 

सोमवार, 27 जनवरी 2014

हमारे शहर में अफ़सर नयी जो आई है..............सचिन अग्रवाल 'तन्हा'



हवा जो नर्म है ,साज़िश ये आसमान की है
वो जानता है परिंदे को ज़िद उड़ान की है

मेरा वजूद ही करता है मुझसे ग़द्दारी
नहीं तो उठने की औकात किस ज़ुबान की है

हमारे शहर में अफ़सर नयी जो आई है
सुना है मैंने, वो बेटी किसी किसान की है

अभी भी वक़्त है मिल बैठकर ही सुलझालो
अभी तो बात फ़क़त घर के दरमियान की है

जवान जिस्म से बोले बुलंदियों के नशे
रहे ख़याल की आगे सड़क ढलान की है

तेरी वफ़ा पे मुझे शक है कब मेरे भाई
मिला है मौके से जो बात उस निशान की है

ये मीठा नर्म सा लहजा ही सिर्फ उसका है
अदब से झुकने की तहज़ीब खानदान की है

सचिन अग्रवाल 'तन्हा'

पता नहीं तुम क्या सोचोगे" .............उत्पल कान्त मिश्र



"आसमान में देखा है
वो कमर" ................... !!

"हुं" ..................... !!

"कितना भोला दिखता है न
श्वेत, सुन्दर, शीतल" ........... !!

"हुं" ..................... !!

"इसके आते ही क्यूँ
मन में वेग होता है" ................ !!

"उन्न" .............. !!

"ये पूरा होता है तो
क्यों मुझमें उन्माद आता है" ............ !!

"क्या कहते हो
तुमको भी
मैं तो चुप ही थी
पता नहीं तुम क्या सोचोगे" ................ !!

"कहती तो, कभी अपनें मन की बात
क्यों न बनती हो तुम, मरासिम" ................ !!

"मैं, मरासिम".................... ??

"हाँ ! मरासिम !
श्वेत, सुन्दर, शीतल" ................ !!

"ओफ, ओ "...............!!

"अंतर है थोड़ा सा बस
आसमान के और मेरे मरासिम में " ............ !!

"हुं, हुं " ....................... !!

"तुम्हारी धवल चाँदनी में
मन रुकता है, उद्वेग थमता है" .............. !!

"बाप रे" ....................... !!

"वो देखो, इस नदी की लहरों को
कल - कल, कुल - कुल कर बलखाती
तुमको ही तो देख रही हैं" ........................... !!

"......................."

"मैं हूँ, नदी है, तुम हो:
और है दूर, वो सुनहरा चाँद
कितना शांत है सब
शीतल ! निर्मल ! तुम से ..................... !!

"चलो ना, अब चलते हैं
अन्धेरा भी आ गया है
नरभक्षी अब निकलेंगे
हम कैसे पहचानेंगे
आदमी की खाल पहन
हमसे, तुमसे ही दिखते हैं
चलो ना, अब चलते हैं" ......... !!

"ह्म्म्मम्म
काश ! होती धवल चाँदनी
इस धरती पर, तुमसी
मरासिम" ...................................... !!

उत्पल कान्त मिश्र
मुंबई, १५:१२
१९/११/२०११ 

http://utpalkant.blogspot.in/2011/10/blog-post_19.html

शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

चलो फुटपाथ पर चलकर कोई मिसरा उठाते हैं.....सचिन अग्रवाल

 
यही ज़िद है तो फिर हिस्सा सभी अपना उठाते हैं
अगर शबनम तुम्हारी है तो हम शोला उठाते हैं

जो हक़ के वास्ते सर अपने कटवाना ही गैरत है
तो ले दुनिया सर अपना और हम ऊंचा उठाते हैं

मुसलसल आँधियों को वरगलाना तुम रखो जारी
चिरागों की धधकती लौ का हम ज़िम्मा उठाते हैं

कई सुथरे घरानों की हक़ीक़त जानते होंगे
ये बच्चे रोज़ चौराहों से जो कूड़ा उठाते हैं

मुनासिब हो तो कितने हैं अना पर ज़ख्म गिन लेना
ये लो हम आज अपने आप से परदा उठाते हैं

किसी रिश्ते की जानिब फिर झुके जाते हैं ज़ेहन ओ दिल
चलो मुट्ठी में फिर एक रेत का दरिया उठाते हैं

चलो कुछ भूखे प्यासे बच्चों के चेहरे ग़ज़ल कर दें
चलो फुटपाथ पर चलकर कोई मिसरा उठाते हैं

('नये मरासिम' में प्रकाशित हो चुकी है)

सचिन अग्रवाल

गुरुवार, 23 जनवरी 2014

न शिकायत है, न ही रोए!..................प्रेमजी (अप्रवासी भारतीय)


ये उम्र तान करके सोए हैं,
थकान पांव-भर जो ढोए हैं।

किसी सड़क पे नहीं मिलती है,
सुबह जो गर्द में ये बोए हैं।

लोग कहते हैं कारवां चुप है,
सराय धुंध में समोए हैं।

नाव कब तक संभालते मोहसिम,
पहाड़ भी जहां डुबोए हैं।

रहन की छत है, ब्याज का बिस्तर,
न शिकायत है, न ही रोए हैं।

फफोले प्यार के निकल आए,
न जाने जिस्म कहां धोए हैं।

न कोई खौफ है अंधेरों से,
न कोई रोशनी संजोए है।

एक मुर्दा शहर-सा मौसम है,
एक मुर्दे की तरह सोए हैं।

ये कहानी कहीं छपे न छपे,
कलम की नोक हम भिगोए हैं।

-प्रेमजी (अप्रवासी भारतीय)

बुधवार, 22 जनवरी 2014

टूटने की यह कहानी..................विद्यानंदन राजीव




नींद टूटी और स्वर्णिम स्वप्न टूटे
थम नहीं पाई अभी तक
टूटने की यह कहानी!

सोचते जब चल पड़ें
परछाइयों का साथ छोड़ें
सामने अवरोध, उनकी
उठ रही बाहें मरोड़ें,

समय की घातक व्यवस्था
हौसलों को तोड़ देती
और गतिकामी चरण को
आँधियों में छोड़ देती,

किंतु अचरज, नहीं अब तक
जिन्दगी में हार मानी।

झेलती प्रतिरोध सारे
अस्मिता फिर भी बनी है
फिसल जाती, फिर संभालती
आस्था कितनी घनी है,

हर कदम रण-भूमि में है
और प्रतिपल का समर है
घात पर आघात सहकर
हौसला होता प्रखर है,

आग का दरिया, कमी है
राह पर घातक हिमानी!
थम नहीं पाई अभी तक
टूटने की यह कहानी!

-विद्यानंदन राजीव
सौजन्यः वेब दुनिया

 

शनिवार, 18 जनवरी 2014

मैं हारा अपनी आदत से................प्रमोद त्रिवेदी

मैं हारा
मैं हारा अपनी आदत से।

कहते हैं लोग- "यह गुलाम, अपनी आदत का।
मजबूर, अपनी आदत से"।
यह मेरी कमजोरी।


कहते हैं सब- "पा सकता है कोई भी ।
चाहे तो इस टेव से मुक्ति।
असंभव नहीं कुछ भी"।

सोचता किन्तु मैं,
इस सोच से अलग
बचेगा ही क्या,
छूट गई यदि मुझसे
मेरी आदत,

क्या मतलब रह जाएगा तब
मेरे होने का।


फूल खिलते हैं आदतन।
जानते हैं,
तोड़ लिए जाएंगे खिलते ही
या बिखर जाएंगे
पंखुड़ी-पंखुड़ी खिलते ही
तब भी कहां छोड़ा खिलना।
छोड़ा नहीं नदी ने बहना
खारे होने के डर से।


सुना है अभी-अभी
आदत से मजबूर तो गिरे गड्‌ढे में।
मरे,

अपने जुनून में।

मैं हंसा फिर
अपनी आदत के मुताबिक।

-प्रमोद त्रिवेदी

गुरुवार, 16 जनवरी 2014

बरसों बाद उसी सूने-आँगन में...........धर्मवीर भारती

बरसों बाद उसी सूने-आँगन में
जाकर चुपचाप खड़े होना
रिसती-सी यादों में पिरा-पिरा उठना
मन का कोना-कोना


कोने से फिर उन्हीं सिसकियों का उठना
फिर आकर बाहों में खो जाना
अकस्मात मंडप के गीतों की लहरी
फिर सन्नाटा हो जाना
दो गाढ़ी मेंहदी वाले हाथों का जुड़ना
कंपना, बेबस हो गिर जाना

रिसती-सी यादों में पिरा-पिरा उठना
मन का कोना-कोना
बरसों बाद उसी सूने-आँगन में
जाकर चुपचाप खड़े होना


-धर्मवीर भारती
मधुरिमा, बुधवार,15, जनवरी.2014

रविवार, 12 जनवरी 2014

बुलबुल को क्या सुने कोई उड़ जाते हैं हवास....मीर तकी `मीर’



अब की हज़ार रंग गुलिस्तां में आए गुल
पर उस बगैर अपने तो जी को न भाए गुल

नाचार हो "चमन में रहिए" कहूं जब
बुलबुल कहे है "और कोई दिन बराए-गुल"

बुलबुल को क्या सुने कोई उड़ जाते हैं हवास
जब दर्दमंद कहते हैं दम भर "हाय गुल"

क्या समझें लुत्फ़ चेहरों के रंगो-बहार का
बुलबुल ने और कुछ नहीं देखा सिवाए गुल

या वरफ़ उन लबों का ज़बाने-कलम पे "मीर"
या मुंह में अंदलीब के थे बर्ग-हाए-गुल

-मीर तकी `मीर’
...................
बराए-गुलः फूल(प्रियतमा), वरफ़ः प्रशंसा
अंदलीबः बुलबुल, बर्ग-हाए-गुलः फूलों की पंखुड़ियां
....................
मूल नामः मुहम्मद तकी
जन्मः 1724
अवसानः 1810
 


शनिवार, 11 जनवरी 2014

मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आएंगे.........दुष्यंत कुमार

 
मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आएंगे
इस बूढ़े पीपल की छाया में सुस्ताने आएंगे

हौले-हौले पांव हिलाओ जल सोया है छेड़ो मत
हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आएंगे

थोड़ी आँच बची रहने दो थोड़ा धुआं निकलने दो
तुम देखोगी इसी बहाने कई मुसाफिर आएंगे

उनको क्या मालूम निरूपित इस सिकता पर क्या बीती
वे आये तो यहां शंख सीपियां उठाने आएंगे

फिर अतीत के चक्रवात में दृष्टि न उलझा लेना तुम
अनगिन झोंके उन घटनाओं को दोहराने आएंगे

रह-रह आँखो में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी
आगे और बढ़े तो शायद दृष्य सुहानें आएंगे

मेले में भटके तो कोई घर पहुंचा जाता
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आएंगे

हम क्यों बोलें कि इस आंधी में कई घरौंदे टूट गये
इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जाएंगे

हम इतिहास नहीं रच पाए इस पीड़ा में दहते हैं
अब जो धारायें पकड़ेंगे इसी मुहाने आएंगे

-दुष्यंत कुमार
मधुरिमा, बुधवार, 8 जनवरी 2014

सोमवार, 6 जनवरी 2014

बारिश में कागज की नाव थी........अज्ञात (फेसबुक से प्राप्त)


एक बचपन का जमाना था,
जिस में खुशियों का खजाना था..

चाहत चाँद को पाने की थी,
पर दिल तितली का दिवाना था..

खबर ना थी कुछ सुबहा की,
ना शाम का ठिकाना था..

थक कर आना स्कूल से,
पर खेलने भी जाना था...

माँ की कहानी थी,
परियों का फसाना था..

बारिश में कागज की नाव थी,
हर मौसम सुहाना था..

अज्ञात (फेसबुक से प्राप्त)

रविवार, 5 जनवरी 2014

आत्मशक्ति पर निर्भर हो.............अनुपमा पाठक

मान-अभिमान से परे
रूठने-मनाने के सिलसिले-सा
कुछ तो भावुक आकर्षण हो !




किनारे पर रेत से घर बनाता
और अगले पल उसे तोड़-छोड़
आगे बढ़ता -सा
भोला-भाला जीवन दर्शन हो !





नमी सुखाती हुई
रूखी हवा के विरुद्ध
नयनों से बहता निर्झर हो !



परिस्थितियों की दुहाई न देकर
अन्तःस्थिति की बात हो
शाश्वत संघर्ष
आत्मशक्ति पर निर्भर हो !




भीतर बाहर
एक से...
कोई दुराव-छिपाव नहीं
व्यवहारगत सच्चाइयां
मन प्राण का दर्पण हो !




सच के लिये
लड़ाई में
निजी स्वार्थों के हाथों
कभी न आत्मसमर्पण हो !



-अनुपमा पाठक

बुधवार 1,जनवरी 2014 की मधुरिमा में प्रकाशित रचना

शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

गीत बनाने की जिद है....-यश मालवीय


दीवारों से भी बतियाने की जिद है
हर अनुभव को गीत बनाने की जिद है

दिये बहुत से गलियारों मे जलते हैं
मगर अनिश्चय के आंगन तो खलते हैं
कितना कुछ घट जाता है मन के भीतर ही
अब सारा कुछ बाहर लाने की जिद है

जाने क्यों जो जी में आया नहीं किया
चुप्पा आसमान को हमने समझ लिया
देख चुके भाषा का बैभव सारा
बच्चों जैसा अब तुतलाने की जिद है

कौन बहलता है अब परी कथाओं से
सौ विचार आते हैं नई दिशाओं से
खोया रहता एक परिन्दा सपनों का
उसको अपने पास बुलाने की जिद है

सरोकार क्या उनसे जो खुद से ऊबे
हमके तो अच्छे लगते हैं मंसूबे
लहरे अपना नाम-पता तक सब खो दें
ऐसा इक तूफान उठाने की जिद है..
---यश मालवीय

मधुरिमा में प्रकाशित रचना


गुरुवार, 2 जनवरी 2014

जल्दबाज़ी में......निर्मल आनन्द


जल्दबाज़ी में
छूट जाता है
कुछ न कुछ
कुछ न कुछ
हो जाती है गलतियां
हड़बड़ी में
पत्र लिखते हुए

नहीं रहती
चित्रकार के
चित्र में सफाई
कहीं फीके
कहीं गाढ़े
लग जाते हैं रंग
कट जाती है उंगलियां
सब्जी काटते-काटते

जब देखते हैं हम पलटकर
बीते दिनों के पन्ने
हमारी गलतियां
सबक की शक्ल में
मुस्कुराती हैं !

-निर्मल आनन्द