तू जो मुझसे जुदा हो गया
आईना भी ख़फ़ा हो गया।।
ढ़ूंढ़ती हूँ उसे दर- ब- दर।
जो हसीं पल हवा हो गया।।
पहले ऐसा नहीं था कभी
वक्त क्यों बेवफ़ा हो गया।।
याद आने लगी है तेरी
ज़ख़्मे दिल फिर हरा हो गया।।
भूख वो ही,वही मुफ़लिसी।
साल कैसे नया हो गया।।
मंज़िलों के लिये आज तो।
जिस्म भी रास्ता हो गया।।
फ़िक़्र है हम सभी की यही।
क्या तवक़्क़ो थी क्या हो गया।।
"यास्मीं" अब तिरा ये बदन।
ख़्वाब का मक़बरा हो गया।।
-डॉ.यासमीन ख़ान
खूबसूरत ग़ज़ल ! बहुत खूब ।
जवाब देंहटाएंवाह्ह...बहुत अच्छी गज़ल👌👌
जवाब देंहटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंवाह !क्या बात है आपकी एक -एक पंक्तियाँ लाज़वाब हैं उम्दा ! शुभकामनाओं सहित ,आभार ''एकलव्य"
जवाब देंहटाएंजीवन की विभिन्न परिस्थितियों को बख़ूबी सजाया है वज़नदार लफ़्ज़ों में। सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंवाह!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर गजल....