‘‘बाबू जी, मैं तो पौने नौ बजे ही आ गया था। आपकी मेज कुर्सी तो मैंने इसलिए छोड़ दी कि आप दस बजे आकर मुझसे दोबारा सफाई करवाते तो हैं ही , तो क्यों न आपके आने पर आपके सामने ही सफाई कर दूँ…’’ चरणदास ने सहजता से जवाब दिया तो बड़ा बाबू बुरी तरह से चिढ़ गया। अपनी खिसियाहट छुपाते हुए बोला, ‘‘अच्छा–अच्छा… अब ज्यादा जिरह मत लगा और फटाफट मेज–कुर्सी साफ कर दे। दुनियाभर का काम पड़ा है करने को। अब तेरी तरह मजे की नौकरी तो है नहीं हमारी कि सारा दिन बैन्च पर बैठे ऊँघते रहें।’’
चरणदास बडे़ बाबू की मेज–कुर्सी झाड़कर चुपचाप अपनी बैन्च पर आ बैठा था। उसका मन कुछ बुझ–सा गया था। अब वह अपने हिस्से के सारे काम तो करता ही है, पर बड़ा बाबू कभी उसके काम से प्रसन्न हुआ हो ऐसा कभी प्रकट में नहीं आया। चरणदास जानता है। वह सब कुछ जानता है कि बड़ा बाबू उससे इतनी नफरत क्यों करता है! क्यों वह उसकी हर छोटी – सी बात में दोष ढूँढने बैठ जाता है।
बड़े बाबू ने मेज पर पड़ी फाइलों पर नोटिंग चढ़ाकर एक तरफ रखा तथा पैन्ट की अन्दरूनी जेब से चाभी निकालकर मेज पर पटकते हुए हाँक लगायी, ‘‘चरणदास… अल्मारी खोलकर कैश बुक निकाल… सर्टिफिकेट देना है!’’ चरणदास ने अल्मारी खोलकर कैशबुक मेज पर रखी ही थी कि बड़ा बाबू कैशबुक देखते ही तैश में आ गया। चरणदास की तरफ लाल–पीली आँखें करता हुआ गुर्राया, ‘‘अबे तुझे समझ नहीं है क्या… करंट वाली कैशबुक निकालकर ला। चरणदास ने चुपचाप वह कैशबुक उठाकर अल्मारी में रखी तथा वहाँ से एक अन्य कैशबुक उठाकर ले आया। उस कैशबुक को देखते ही बड़ा बाबू आपे से बाहर हो गया। लगा चिल्लाने, ‘‘अबे आज क्या तू अपना दिमाग घर छोड़कर आया है जो ऐसी हरकतें कर रहा है! ग्रीन जिल्द वाली कैशबुक तू रोज़ निकालकर लाता है और आज देख कैसे जानबूझकर मुझे परेशान कर रहा है …!
बार–बार के अपमान से आहत चरणदास के भीतर विरोध के स्वर उभर आए थे। वह कैशबुक वहीं मेज पर छोड़कर बोला, ‘‘मैं तो अनपढ़ हूँ बाऊजी! अब मुझे क्या समझ कि आपको क्या चाहिए! … यह आपके सामने चार कदम पर तो अल्मारी है … आप थोड़ी सी तकलीफ करो और आपको जो चाहिए स्वयं ही ले लो! यह कहकर चरणदास वापिस अपनी बैन्च पर आकर बैठ गया था।
चरणदास की इस क्रिया से बड़े बाबू की क्रोघाग्नि में घी पड़ गया था, मानो। वह कुर्सी को पीछे धकेलकर खड़ा होता हुआ चिल्लाया, ‘‘अबे ओ चूहड़े के बीज… तू अपना ये चूहड़ापना घर पर ही छोड़कर आया कर … यहाँ हमारे सामने दफ्तर में अपनी गंदगी मत खिंडाया कर…
जातिसूचक गाली सुनकर चरणदास का खून खौल उठा। दफ्तर और अपने छोटे पद का खयाल कर बमुश्किल अपने गुस्से को पीता हुआ बोला, ‘‘बाऊजी आप उम्र में और पद में मुझसे बडे़ हैं। आप ऊँची जाति से हैं पर इसका मतलब यह तो नहीं कि आप मुझे जातिसूचक गाली देकर बात करेंगे। यह सब आपको शोभा नहीं देता है।
‘‘कहूँगा मैं तो तुझे … चूहड़ा। चूहड़े की औलाद! तुझे जो मेरा बिगाड़ना है, बिगाड़ले… जा!’’बडे़ बाबू ने चरणदास के अपने प्रति मन में बसी नफरत को उल्टी की तरह से उगला तथा बड़बड़ाता हुआ अपने काम में लग गया।
चरणदास का बाहर भीतर अपमान की आग में जलने लगा था। उसे लगा कि अगर आज वह चुप बैठा रह गया ,तो यह आग तो उसकी पीढ़यों को जला देगी। मन ही मन कुछ निश्चय कर वह उठा और अपने प्रधान रामआसरे को साथ ले जाकर चौकी में बड़े बाबू के खिलाफ पर्चा दे दिया।
बड़े बाबू को जब पुलिस चौकी से बुलावा आया तो उसके सारे तेवर ढीले पड़ गए। चौकी इंचार्ज उसे समझाते हुए बोला, ‘‘बाऊजी सरकारी नौकरी में होते हुए आपने ऐसी गलती क्यों की! आपको पता होना चाहिए कि छुआछूत अपराध की श्रेणी में आता है।एक दिन का समय दे रहा हूँ, अगर अपनी नौकरी की सलामती चाहते हो , तो समझौता कर लो। कल इसी समय पुन: हाजिर हो जाना…।’’
बडे़ बाबू ने अपनी पूरी ताकत लगा दी कि किसी तरह से चरणदास अपनी शिकायत वापिस ले ले। उसने अपनी यूनियन के पदाधिकारियों एवं कार्यालय के अन्य कर्मचारियों के माध्यम से भी चरणदास को मनाने की कोशिश की किंतु चरणदास टस से मस न हुआ। वह हाथ जोड़कर मात्र एक ही बात कहता कि उसे न्याय चाहिए।
अगले दिन पुलिस चौकी में चरणदास तथा बड़ा बाबू अपने साथ दो–दो मौजिज व्यक्तियों को लेकर पहुँच गये थे। बड़े बाबू के होश–हवाश उड़े हुए थे। उसे काटो तो खून नहीं। चौकी इंचार्ज ने फिर से कहा, ‘‘तुम दोनों सरकारी कर्मचारी हो। बात बढ़ाने से क्या फायदा…। एक–दूसरे से हाथ मिलाकर बात खत्म करो। बड़ा बाबू तो मानो इसी ताक में था। क्षणांश की भी देरी किये बिना उसने चरणदास के पैरों को छू लिया। हाथ जोड़कर फफकता हुआ बोला, ‘‘मेरी नौकरी तेरे हाथ है चरणदास … मेरी दो बेटियाँ अभी अनब्याही हैं … भाई मुझे माफ कर दे।
बडे़ बाबू की आँखों में आँसू देखकर चरणदास पिघल गया, बोला, ‘‘बाऊजी! मैं तो छोटा आदमी हूँ और सदा छोटा ही रहूँगा। आपको सजा दिलवाना मेरा उद्देश्य नहीं था। मैं तो बस आपको अहसास दिलाना चाहता था कि मैं भी एक मनुष्य हूँ। क्या हुआ गर मैं छोटी जाति में पैदा हो गया …!’’
चरणदास ने समझौता प्रस्तुत करके अपनी शिकायत वापिस ले ली थी।
पुलिस चौकी से बाहर आते हुए बड़ा बाबू पसीने पौंछ रहा था। वह अपने आप को बेहद अपमानित महसूस कर रहा था। रही–सही कसर पुलिस वालों ने उसकी जेब खाली करा कर पूरी कर दी थी। बाहर आते हुए उसकी हालत ऐसी हो रही थी , मानो बस के पहिये के नीचे उसकी गर्दन आती–आती बची हो ! चरणदास की गर्दन आत्मविश्वास से तनी हुई थी तथा उसका चेहरा स्वाभिमान की आभा से दमक रहा था। यह देखकर बड़े बाबू के मन में जातीय द्वेष की भावना फिर से जाग्रत हो गयी थी। बड़ा बाबू चरणदास के नजदीक आकर, नफरत से उसकी तरफ देखता हुआ बुदबुदाया, ‘‘चरणदास … हो गई तेरे मन की पूरी! अब तो तू खुश है! पर एक बात बता चरणदास … अब क्या तू ब्राह्मण हो गया है?’’
चरणदास विस्फारित नेत्रों से बडे़ बाबू का चेहरा ताकता ही रह गया। उसे लगा, मानो बड़े बाबू ने उसे फिर से गाली देते हुए उसके गाल पर तमाचा जड़ दिया है।
-अरुण कुमार
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मर्मस्पर्शी
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