ग्यारह वर्षीय दया अनमने भाव से कड़ाही में कड़छी घुमा रही थी। माँ ने उसे ऐसा करते देखा तो पीछे से एक चपत जमाते हुए बोली, "क्यों री समझ नहीं आती तेरे को बात? अभी तक तुलसी नहीं सजाई, ला दे कड़छी और जा तैयार हो जा।" माँ ने झिड़कते स्वर में कहा।
दया सरक कर रसोई की चौखट पर खड़ी हो गयी। उसकी आँखें डबडबाती जा रहीं थीं, माँ ने उसकी नज़रों में उतर आई बूँदों को देखा तो उसके पास आकर चिंतित स्वर में पूछा, "का हुआ दया? ऐसे काहे गुमसुम हो गयी?"
"माँ हम नहीं सजायेंगे तुलसी, हमको नहीं करना तुलसी ब्याह," सुबकते हुए दया की आवाज़ निकली।
"ऐसा काहे बोल रही? पूजा अच्छे से करेगी तो तेरा पति भी बिसनू भगवान जईसा मिलेगा ना! और जल्दी भी। तेरी गुड़िया...," माँ ने समझाया।
"हमका नहीं चाहिए बिसनू!" दया अचानक ज़ोर से बोली, फिर सिसकियाँ लेते हुए कहना शुरू किया....
"पिछला साल लछमी भी करी थी अइसने तुलसी ब्याह पूजा-पाठ फिर उसका भी ब्याह हो गया। देखो उसका गुड्डा गुड़िया भी यहीं रह गया और उ चली गयी। कोई हमरे साथ खेलने वाली सहेली भी नही अब।"
सिसकियाँ गूँज-गूँज कर माहौल में स्तब्धता फैला रहीं थीं, तुलसी भी नहीं चाहती थी कि उसे कोई अभी सजाये, मानो कह रही हो देखो मेरा "क़द" छोटा बहुत है। मैं तैयार नहीं अभी।
-ऋषभ आदर्श
सिमडेगा, झारखण्ड
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