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रविवार, 13 मई 2018

सत्रह हाथी...विजय विक्रान्त

सेठ घनश्याम दास बहुत बड़ी हवेली में रहता था। उसके तीन लड़के थे। पैसा, नौकर, चाकर, घोड़ा गाड़ी तो थी ही, मगर उसे अपने ख़ज़ाने में सबसे अधिक प्यार अपने 17 हाथियों से था। हाथियों की देखरेख में कोई कसर न रह जाए, इस बात का उसे बहुत ख़्याल था। उसे सदा यही फ़िक्र रहता था कि उसके मरने के बाद उसके हाथियों का क्या होगा। समय ऐसे ही बीतता चला गया और सेठ को महसूस हुआ कि उसका अंतिम समय अब अधिक दूर नहीं है।

उसने अपने तीनों बेटों को अपने पास बुलाया और कहा कि मेरा समय आ गया है। मेरे मरने के बाद मेरी सारी जायदाद को मेरी वसीयत के हिसाब से आपस में बाँट लेना। एक बात का ख़ास ख़्याल रखना कि मेरे हाथियों को किसी भी किस्म की कोई भी हानि न हो।

कुछ दिन बाद सेठ स्वर्ग सिधार गया। तीनों लड़कों ने जायदाद का बंटवारा पिता की इच्छा अनुसार किया, मगर हाथियों को लेकर सब परेशान हो गए। कारण था कि सेठ ने हाथियों के बंटवारे में पहले लड़के को आधा, दूसरे को एक तिहाई और तीसरे को नौवाँ हिस्सा दिया था। 17 हाथियों को इस तरह बाँटना एकदम असम्भव लगा। हताश होकर तीनों लड़के 17 हाथियों को लेकर अपने बाग में चले गए और सोचने लगे कि इस विकट समस्या का कैसे समाधान हो।

तभी तीनों ने देखा कि एक साधू अपने हाथी पर सवार, उनकी ही ओर आ रहा है। साधू के पास आने पर लड़कों ने प्रणाम किया और अपनी सारी कहानी सुनाई। साधू ने कहा कि अरे इस में परेशान होने की क्या बात है। लो मैं तुम्हें अपना हाथी दे देता हूँ। सुनकर तीनों लड़के बहुत खुश हुए। अब सामने 18 हाथी खड़े थे। साधू ने पहले लड़के को बुलाया और कहा कि तुम अपने पिता की इच्छा अनुसार आधे यानि नौ हाथी ले जाओ। दूसरे लड़के को बुलाकर उसने एक तिहाई यानि छ: हाथी दे दिए। छोटे लड़के को उसने बुलाकर कहा कि तुम भी अपना नौंवाँ हिस्सा यानि दो हाथी ले जाओ। नौ जमा छ: जमा दो मिलाकर 17 हाथी हो गए और एक हाथी फिर भी बचा गया। लड़कों की समझ में यह गणित बिलकुल नहीं आया और तीनों साधू महाराज की ओर देखते ही रहे। उन सब को इस हालत में देखकर साधू महाराज मुस्काए और आशीर्वाद देकर तीनों से विदा ले, अपने हाथी पर जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में चले गए। इधर यह तीनों सोच रहे थे कि साधू महाराज ने अपना हाथी देकर कितनी सरलता और भोलेपन से एक जटिल समस्या को सुलझा दिया।
-विजय विक्रान्त

शनिवार, 5 अगस्त 2017

तुलसी विवाह......ऋषभ आदर्श


"अरे शकरकन्द उबल गया है तो गुड़ मिला दे..हलवा जल्दी बना मुहूर्त निकल जाएगा," माँ आँगन में चावल के घोल और सिंदूर से रंगोलियाँ बनाते हुए निर्देश दे रहीं थीं।

ग्यारह वर्षीय दया अनमने भाव से कड़ाही में कड़छी घुमा रही थी। माँ ने उसे ऐसा करते देखा तो पीछे से एक चपत जमाते हुए बोली, "क्यों री समझ नहीं आती तेरे को बात? अभी तक तुलसी नहीं सजाई, ला दे कड़छी और जा तैयार हो जा।" माँ ने झिड़कते स्वर में कहा।

दया सरक कर रसोई की चौखट पर खड़ी हो गयी। उसकी आँखें डबडबाती जा रहीं थीं, माँ ने उसकी नज़रों में उतर आई बूँदों को देखा तो उसके पास आकर चिंतित स्वर में पूछा, "का हुआ दया? ऐसे काहे गुमसुम हो गयी?"

"माँ हम नहीं सजायेंगे तुलसी, हमको नहीं करना तुलसी ब्याह," सुबकते हुए दया की आवाज़ निकली।

"ऐसा काहे बोल रही? पूजा अच्छे से करेगी तो तेरा पति भी बिसनू भगवान जईसा मिलेगा ना! और जल्दी भी। तेरी गुड़िया...," माँ ने समझाया।

"हमका नहीं चाहिए बिसनू!" दया अचानक ज़ोर से बोली, फिर सिसकियाँ लेते हुए कहना शुरू किया....

"पिछला साल लछमी भी करी थी अइसने तुलसी ब्याह पूजा-पाठ फिर उसका भी ब्याह हो गया। देखो उसका गुड्डा गुड़िया भी यहीं रह गया और उ चली गयी। कोई हमरे साथ खेलने वाली सहेली भी नही अब।"

सिसकियाँ गूँज-गूँज कर माहौल में स्तब्धता फैला रहीं थीं, तुलसी भी नहीं चाहती थी कि उसे कोई अभी सजाये, मानो कह रही हो देखो मेरा "क़द" छोटा बहुत है। मैं तैयार नहीं अभी।


-ऋषभ आदर्श
सिमडेगा, झारखण्ड