गुरुवार, 2 जनवरी 2025

01 मौन.. पहाड़ का


नग्न काया
परवत का
बजा रहा
संगीत 
पतझड़ का

कुछ विरहगान
गुनगुनाती
पहाड़ी लड़कियाँ
गीत में...है 
समाया हुआ
दुःख पहाड़ का

सिकुड़कर 
लाज से
सिसकते सिकुड़ी सी 
नदी 'औ'
जंगल तोड़ रहे
मौन...पहाड़ का

और नदी के
छलछलाने की
आवाज़ भी
भंग करती है
मौन ... पहाड़ का 
- दिग्विजय

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत मार्मिक कविता !
    वाकई पहाड़ सिसक रहा है क्योंकि उसका सब कुछ धीरे-धीरे उजड़ रहा है.

    जवाब देंहटाएं
  2. गहन भावाभिव्यक्ति सर।
    सादर।
    -------

    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ३ जनवरी २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।
    नववर्ष २०२५ मंगलमय हो।

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह! बहुत खूबसूरत सृजन...सही कहा आपनें पहाड़ सिसक रहे हैं ...

    जवाब देंहटाएं