हरि सिंह नलवा ने दो सदी पहले अफगानों पर कसी थी नकेल
अफगानिस्तान वैसे तो अब तक बड़े-बड़े साम्राज्यों की कब्रगाह साबित होता आया है। अपनी ऊबड़ खाबड़ टीलानुमा जमीन और वहां के कबीलाई बाशिंदों की आक्रमणकारी प्रवृत्ति व उनके बीच अंदरूनी संघर्ष के चलते दुनियाभर की ताकतवर शक्तियां कभी इस देश पर पूरा नियंत्रण नहीं कर पाई। और यही वजह है कि उन्हें अपने लहूलुहान सैनिकों के साथ अफरा-तफरी में वहां से जान बचाकर भागना पड़ा।
हालिया दौर में सोवियत संघ ने भी वहां 1980 तक अपनी फौज जमाए रखी और अमेरिका ने भी 9/11 के हमले के उपरांत 20 साल पहले अफगानिस्तान में अपनी फौज भेजी थी लेकिन दशकों तक कोई नतीजा न निकलते देख आखिरकार उन्हें अपनी सेना वापस बुलानी पड़ी। लेकिन आज से करीब दो सदी पूर्व वहां हरि सिंह नलवा नामक एक सिख योद्धा पटल पर उभरे जिन्होंने वहां इन विद्रोही प्रवृत्ति के लोगों की नाक में नकेल डाल दी और अपने अद्भुत युद्ध कौशल की बदौलत उसने अफगानिस्तान में ऐसे सिख योद्धा की साख बनाई जिससे अफगानी आज भी खौफजदा रहते हैं।
उन्होंने आगे कहा, जब अफगान बार-बार पंजाब और दिल्ली का रुख करते तो महाराजा रणजीत सिंह ने अपना साम्राज्य सुरक्षित करने का फैसला किया और उन्होंने दो किस्म की सेनाएं तैयार करार्इं- एक में फ्रांस, जर्मनी, इटली, रशिया आदि के सैनिक भर्ती कराए गए जो उस समय के तमाम आधुनिक हथियारों और गोला-बारूद आदि से लैस थे, जबकि दूसरी सेना हरि सिंह नलवा के ही नेतृत्व में बनाई गई थी जो असल में महाराजा रणजीत सिंह के सबसे बड़े योद्धा थे और जिन्होंने अफगानिस्तान की ही प्रजाति हजारा के 1000 लड़कों को को हराया था जो संख्या में सिख सेना से तीन गुना कम थी। यही वजह है कि वर्ष 2013 में भारत सरकार ने उनकी बहादुरी और युद्ध कला को समर्पित डाक टिकट भी जारी की थी।
नलवा का नाम अफगानों के दिलों में सबसे ज्यादा खौफ पैदा करने वाला नाम कैसे बना, इसके जवाब में विख्यात इतिहासविद् सतीश के. कपूर ने कहा, ‘हरि सिंह नलवा ने अफगानों के खिलाफ कई युद्धों में हिस्सा लिया था और यही वजह है कि उनके कब्जे वाले कई इलाके अफगानों के हाथों से निकलते गए। यह सभी युद्ध नलवा के ही नेतृत्व में लड़े गए। जैसे 1807 में उन्होंने कसूर की जंग लड़ी जब वह मात्र 16 साल के थे और उन्होंने ही कुतुबद्दीन खान को करारी शिकस्त दी। 1813 में अटोक की जंग में नलवा ने अन्य कमांडरों के साथ मिलकर अजीम खान और उसके भाई दोस्त महोम्मद खान को हराया।
इन्हीं जंगों ने अफगानों के दिल में नलवा का ऐसा खौफ भर दिया कि वहां माताएं अपने उद्दंड बच्चों को उनका नाम लेकर डराने लगीं।’ उन्होंने बताया कि अफगान-पंजाब सीमा पर नजर रखने के लिए ही नलवा पेशावर में डटे रहे। इतिहासकार बताते हैं कि जमरूद की जंग में, जहां हरि सिंह नलवा की जान चली गई थी, दोस्त मोहम्मद खान ने अपने पांच बेटों के साथ सिख सेना के खिलाफ जंग में हिस्सा लिया था और हथियारों आदि की सीमित आपूर्ति सहित उसमें करीब 600 लड़ाके शामिल थे। जब भी अफगान लड़ाकों को पता चलता कि नलवा आ गया है तो वह भौंचक्के रह जाते और जंग के मैदान से भाग खड़े होते। लेकिन अपनी मौत से पहले घायलावस्था में भी उन्होंने अपनी सेना से कह रखा था कि जब तक लाहौर से सेना नहीं आ जाती, तब तक उसकी मौत की खबर न बताई जाए। बताया जाता है कि एक हफ्ते तक सिख सेना नलवा का सिर ऊपर उठाकर दुश्मन को दिखाती रही और तब तक लाहौर से अतिरिक्त सेना पहुंच गई जिसके बाद अफगान वहां से मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए।
हरि सिंह नलवा को महाराजा रणजीत सिंह के पोते नव निहाल सिंह की शादी में लाहौर जाना था, लेकिन वह वहां नहीं जा पाए क्योंकि वह एक कुशल प्रशासक थे और उन्हें शक था कि यदि वह वहां से गए तो दोस्त मोहम्मद खां मौके का फायदा उठाकर जमरूद पर आक्रमण कर देगा। क्योंकि हालांकि उसे भी शादी में न्यौता दिया गया था लेकिन वह वहां गया नहीं था। इतिहासकारों का मानना है कि यदि महाराजा रणजीत सिंह और उनके कमांडर हरि सिंह नलवा ने पेशावर और नॉर्थ-वैस्ट फ्रंटियर नहीं जीता होता, जो अब पाकिस्तान में है तो यह इलाका अफगानिस्तान में होता और फिर अफगानों की पंजाब और दिल्ली में घुसपैठ रोकना भी असंभव था।
यूं पड़ा नलवा नाम
हरि सिंह का जन्म 1791 में गुजरांवाला में हुआ था जो अब पाकिस्तान में है। उनके नाम के साथ नलवा उपनाम तब जुड़ा जब उन्होंने युवावस्था में एक बाघ का शिकार कर दिया था। उन्हें बाघ-मार भी कहा जाता है। बाघ के पलक झपकते ही हमला कर दिए जाने से उन्हें तलवार निकालने का भी मौका नहीं मिला तो उन्होंने बाघ का जबड़ा पकड़ लिया और धक्का देकर पीछे गिरा दिया। और फिर अपनी तलवार निकाली और बाघ को मार गिराया। तब महाराजा रणजीत सिंह को इस वाकये का पता चला तो उन्होंने उसे बुलाया और कहा, ‘वाह, मेरे राजा नल वाह।’ नल दरअसल, महाभारतकाल में एक राजा हुए और वह भी अपनी बहादुरी के लिए ही जाने जाते हैं। उनके पिता गुरदयाल सिंह की 1798 में तब मृत्यु हो गई थी जब हरि मात्र 7 साल के थे और फिर उनके मामा ने ही उन्हें पाला।