सोमवार, 31 जुलाई 2017

माँ – अनोखे रूप....विश्वनाथ त्रिपाठी

काशी दशाश्वमेघ घाट पर अनेक छोटे-बड़े मंदिर हैं, उन्ही में से एक छोटा- सा मंदिर गंगा में अधडूबा सा है, नौका-विहार करते समय एक मल्लाह  ने मुझे उस भग्न अध डूबे मंदिर की कहानी सुनाई|

एक बुड्ढी विधवा थी, उसका एक बेटा था| बुढ़िया ने मेहनत मजदूरी करके बेटे को पढ़ाया-लिखाया| बेटा बुद्धिमान था, पढ़-लिखकर बड़ा अफसर बन गया|वह अपनी माँ के दिन भूला नहीं , गंगा-तट पर उसने मंदिर बनवाया|

मंदिर बन गया तो माँ से बोला – माँ तूने मेरे लिए इतना किया| मैंने तेरे लिए मंदिर बनवा दिया है, अब तू इधर-उधर मत जा| इसी मंदिर में भगवान की पूजा कर| तूने मेरे लिए इतना किया मैंने भी मंदिर बनवा कर तेरे ऋण से मुक्त हो गया|

कहते हैं कि जैसे ही बेटे ने कहा- मैं तेरे ऋण से मुक्त हो गया वैसे ही मंदिर टूटकर गंगा जी में डूब गया|

मल्लाह ने मुझे बताया – वह यही मंदिर है|

रविवार, 30 जुलाई 2017

तो क्या…?..... कुमार शर्मा ‘अनिल’


 ज़्यादा पुरानी बात नहीं है। मात्रा तीन  महीने ही गुजरे होंगे  जब उसे अचानक अपनी चालीस बरस की  उम्र में   सोलह बरस की अनन्या  से प्रेम   हो  गया था।  उसने बहुत बार  सोचा था  कि यह वाकई में   प्रेम  है   या मात्रा  शारीरिक आकर्षण अथवा  पत्नी से नीरस बन चुके    सम्बन्धों से उकता जाकर कुछ नया  तलाशने  की  पुरुष की  आदिम   प्रवृत्ति। प्रेम  और  शारीरिक   आकर्षण में    अंतर की  बहुत  ही महीन  सी रेखा  होती  है  और  इन्हें  एकदम से अलग कर नहीं देखा  जा सकता।  अनन्या उसकी बेटी  की  अभी हाल  ही में  बनी सहेली थी   और लगभग   रोज  ही शाम   को पढ़ने उसके   घर  आती   थी।

‘‘तेरे  पापा  बहुत  ही हैण्डसम  और यंग  लगते   हैं’’ -अनन्या   ने उसकी बेटी  से  कहा   तो बेटी  ने  गर्व  महसूस  करते  हुए यह जुमला परिवार  में   सभी को ‘एज़ इट इज़’ बता दिया। अगले  दिन उसने जब अनन्या को  देखा  तो  उसकी दृष्टि  बदली हुई   थी।  अब वह उसकी बेटी  की सहेली नहीं   थी ; बल्कि  सिर्फ़ ‘अनन्या’ थी।  उसे वह  खूबसूरत गुड़िया – सी लगी। सोलह बरस की  खूबसूरत  लड़कियाँ  जिनके चेहरे की मासूमियत यह चुगली  खा रही  होती है  कि उनका बचपन अभी गया नहीं  है और शरीर  की  बढ़ती मांसलता यह बता रही होती है  कि जवानी ने  अपनी दस्तक दे दी   है, लगती भी गुड़िया – सी ही हैं। वह जब भी गुड़ियाओं को  देखता    था तब भी  उसके मन में   यह सवाल हमेशा आता  था  कि बच्चों  के खेलने के लिए बनी गुडि़याएँ   अपनी शारीरिक  बनावट में   इतनी  उत्तेजक क्यों बनाई   जाती हैं।

लापरवाही से भरी और  अल्हड़ता  से छलकती  सी बातबात में  ‘तो    क्या…?’ बोलने वाली अनन्या  की न तो  उम्र  इतनी थी  ,न उसमें इतनी   समझ ही  थी कि वह उसकी आँखों के  भावों   को  जान सके और  चेहरे  को  पढ़  सके…और उसकी उम्र   भी इतनी कहाँ   थी कि वह  अनन्या  जितनी छोटी, मासूम  - सी लड़की  का  हाथ पकड़   जाकर  कह सके कि‘‘तुम   बहुत  सुंदर हो’’   या‘‘ तुम मुझे  बहुत अच्छी लगती  हो’’।

बस यही दो   वाक्य थे  जो उसके  मस्तिष्क   में  गूंजते     थे   परंतु उसकी   उन्हें   कहने की हिम्मत नहीं पड़ती  थी।  वह इतनी बातूनी और  चंचल थी  कि बहुत  संभव था  कि वह प्रति उत्तर में   कह देती‘‘सुंदर   तो मैं    हूँ…तो क्या?’’वह   ऐसी  ही थी। चंचल,   बातूनी और अपनी सुंदरता  व परिवार   की  सम्पन्नता  के दंभ   या स्वाभिमान से  भरी…छलकती -सी लड़की।  इसमें उसका  कोई  दोष  भी नहीं   था ; क्योंकि बचपन से ही अपनी सुंदरता  की  बातें सुनते  हुए  ही  वह   बड़ी   हुई  थी।   लेकिन  पहली बार   देखने पर ही अनन्या   का  यह कहना ‘‘तेरे पापा  बहुत   ही हैण्डसम   और यंग  है’’ उसे हमेशा  इस अनजानी  राह पर आगे   बढ़ने के  लिए प्रेरित  करता - सा लगता।

तीन  माह तक  प्रेम  और   शारीरिक   आकर्षक के बीच   के अंतर की  जद्दोजहद से गुजरने  के पश्चात कल उसे  मौका मिल ही गया  जब अनन्या को  रात  ज्यादा हो  जाने पर उसे  कार में   घर  छोड़ने   जाना पड़ा।  सब कुछ अप्रत्याशित   था   उसके लिए।

‘‘तुम  मुझे बहुत अच्छी लगती  हो  अनन्या’’ उसने हिम्मत करके  उसे  बोल ही दिया।

‘‘तो  क्या…?।आप भी  मुझे  बहुत  अच्छे लगते  हो…।  पहले  दिन  से ही’’-अनन्या ने अपनी सीट बेल्ट खोली  और   उसके गाल पर एक लम्बा ‘किस’  रसीद कर दिया।

सब कुछ इतनी  जल्दी घट  जाएगा  और इतना  अप्रत्याशित,   इसकी उसने कल्पना  भी नहीं की   थी।  उसे लगा  वह  खुशी  से पागल  हो   जाएगा।

‘‘पहली नजर  में   ही  मुझे तुमसे प्यार  हो  गया था’’उसने  प्यार  से अनन्या का हाथ पकड़ लिया-‘‘ पर तुम मुझसे इतनी  छोटी  हो  कि मेरी हिम्मत   ही  नहीं  पड़ती  थी कि तुम्हें कह सकूँ  कि मैं तुम्हें     प्यार करता हूँ।’’

‘‘छोटी  हूँ  तो  क्या?  हमारे मैथ्स के टीचर राकेश सर तो आपसे भी   बड़े  हैं। सुरभि और राकेश  सर भी  तो  आपस  में  बहुत प्यार करते हैं।  वो  तो   आपस  में …’

उसने एक झटके से अनन्या का हाथ  छोड़  दिया।  ‘‘सुरभि’’…शब्द उसके  दिमाग में फँस _सा गया।

‘‘प्यार ही  तो करते हैं  तो  क्या…?’’ अनन्या  उसी  मासूमियत से  उसका  चेहरा देखने  लगी।

सुरभि  उसकी अपनी बेटी  थी।

-0-कुमार   शर्मा ‘अनिल’ -0-

संपर्क : म नं 46,  रमन एनक्लेव, 
छज्जू  माजरा, 
खरड़ सेक्टर–117,    
ग्रेटर मोहाली–140301  (पंजाब)

शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

"एक प्यार ऐसा भी....व्हाट्स एप्प से


नींद की गोलियों की आदी हो चुकी
बूढ़ी माँ नींद की गोली के लिए ज़िद कर रही थी।

बेटे की कुछ समय पहले शादी हुई थी।

बहू डॉक्टर थी। 
बहू सास को नींद की दवा की लत के नुक्सान के बारे में बताते
हुए उन्हें गोली नहीं देने पर अड़ी थी।

जब बात नहीं बनी तो सास ने गुस्सा
दिखाकर नींद की गोली पाने का प्रयास किया।

अंत में अपने बेटे को आवाज़ दी।

बेटे ने आते ही कहा,'माँ मुहं खोलो।

पत्नी ने मना करने पर भी बेटे ने जेब से एक दवा का पत्ता निकाल कर एक छोटी पीली गोली माँ के मुहं में डाल दी।

पानी भी पिला दिया। गोली लेते ही आशीर्वाद देती हुई

माँ सो गयी।

पत्नी ने कहा....ऐसा नहीं करना चाहिए।'

पति ने दवा का पत्ता अपनी पत्नी को दे दिया।

विटामिन की गोली का पत्ता देखकर पत्नी के चेहरे पर मुस्कराहट आ गयी।
धीरे से बोली....
आप माँ के साथ चीटिंग करते हो।

''बचपन में माँ ने भी चीटिंग करके
कई चीजें खिलाई है।
पहले वो करती थीं,

अब मैं बदला ले रहा हूँ।
यह कहते हुए बेटा मुस्कुराने लगा।"

.....व्हाट्स एप्प से

गुरुवार, 27 जुलाई 2017

कुण्डलिया काका की....समापन किस्त

पिछले अंक से आगे....

नाम बड़े दर्शन छोटे / काका हाथरसी 
सुखीरामजी अति दुखी, दुखीराम अलमस्त,
हिकमतराय हकीमजी रहें सदा अस्वस्थ।
रहें सदा अस्वस्थ, प्रभु की देखो माया,
प्रेमचंद में रत्ती-भर भी प्रेम न पाया।
 कह ‘काका’ जब व्रत-उपवासों के दिन आते, 
त्यागी साहब, अन्न त्यागकार रिश्वत खाते।

रामराज के घाट पर आता जब भूचाल,
लुढ़क जायं श्री तख्तमल, बैठें घूरेलाल।
बैठें घूरेलाल, रंग किस्मत दिखलाती,
इतरसिंह के कपड़ों में भी बदबू आती।
कह ‘काका’, गंभीरसिंह मुंह फाड़ रहे हैं,
महाराज लाला की गद्दी झाड़ रहे हैं।

दूधनाथजी पी रहे सपरेटा की चाय,
गुरू गोपालप्रसाद के घर में मिली न गाय।
घर में मिली न गाय, समझ लो असली कारण-
मक्खन छोड़ डालडा खाते बृजनारायण।
‘काका’, प्यारेलाल सदा गुर्राते देखे,
हरिश्चंद्रजी झूठे केस लड़ाते देखे।

रूपराम के रूप की निन्दा करते मित्र,
चकित रह गए देखकर कामराज का चित्र।
कामराज का चित्र, थक गए करके विनती,
यादराम को याद न होती सौ तक गिनती,
कह ‘काका’ कविराय, बड़े निकले बेदर्दी,
भरतराम ने चरतराम पर नालिश कर दी।

नाम-धाम से काम का क्या है सामंजस्य?
किसी पार्टी के नहीं झंडाराम सदस्य।
झंडाराम सदस्य, भाग्य की मिटें न रेखा,
स्वर्णसिंह के हाथ कड़ा लोहे का देखा।
कह ‘काका’, कंठस्थ करो, यह बड़े काम की,
माला पूरी हुई एक सौ आठ नाम की।
- काका हाथरसी

बुधवार, 26 जुलाई 2017

कुण्डलियाँ....काका हाथरसी

पिछले अंक से आगे....

नाम बड़े दर्शन छोटे / काका हाथरसी 
तेजपालजी मौथरे, मरियल-से मलखान,
लाला दानसहाय ने करी न कौड़ी दान।
 करी न कौड़ी दान, बात अचरज की भाई,
वंशीधर ने जीवन-भर वंशी न बजाई।
 कहं ‘काका’ कवि, फूलचंदनजी इतने भारी-
दर्शन करके कुर्सी टूट जाय बेचारी।

 खट्टे-खारी-खुरखुरे मृदुलाजी के बैन,
मृगनैनी के देखिए चिलगोजा-से नैन।
 चिलगोजा-से नैन, शांता करती दंगा,
नल पर न्हातीं गोदावरी, गोमती, गंगा।
 कहं ‘काका’ कवि, लज्जावती दहाड़ रही है,
दर्शनदेवी लम्बा घूंघट काढ़ रही है।

 कलीयुग में कैसे निभे पति-पत्नी का साथ,
चपलादेवी को मिले बाबू भोलानाथ।
 बाबू भोलानाथ, कहां तक कहें कहानी,
पंडित रामचंद्र की पत्नी राधारानी।
‘काका’ लक्ष्मीनारायण की गृहणी रीता,
कृष्णचंद्र की वाइफ बनकर आई सीता।

अज्ञानी निकले निरे, पंडित ज्ञानीराम,
कौशल्या के पुत्र का रक्खा दशरथ नाम।
 रक्खा दशरथ नाम, मेल क्या खुब मिलाया,
दूल्हा संतराम को आई दुलहिन माया।
‘काका’ कोई-कोई रिश्ता बड़ा निकम्मा-
पार्वतीदेवी है शिवशंकर की अम्मा।

पूंछ न आधी इंच भी, कहलाते हनुमान,
मिले न अर्जुनलाल के घर में तीर-कमान।
 घर में तीर-कमान, बदी करता है नेका,
तीर्थराज ने कभी इलाहाबाद न देखा।
 सत्यपाल ‘काका’ की रकम डकार चुके हैं,
विजयसिंह दस बार इलैक्शन हार चुके हैं।

 सुखीरामजी अति दुखी, दुखीराम अलमस्त,
हिकमतराय हकीमजी रहें सदा अस्वस्थ।
 रहें सदा अस्वस्थ, प्रभु की देखो माया,
प्रेमचंद में रत्ती-भर भी प्रेम न पाया।
 कहं ‘काका’ जब व्रत-उपवासों के दिन आते, 
त्यागी साहब, अन्न त्यागकार रिश्वत खाते।

रामराज के घाट पर आता जब भूचाल,
लुढ़क जायं श्री तख्तमल, बैठें घूरेलाल।
 बैठें घूरेलाल, रंग किस्मत दिखलाती,
इतरसिंह के कपड़ों में भी बदबू आती।
 कहं ‘काका’, गंभीरसिंह मुंह फाड़ रहे हैं,
महाराज लाला की गद्दी झाड़ रहे हैं।
-काका हाथरसी
.....अगले अंक में भी


मंगलवार, 25 जुलाई 2017

कुण्डलियाँ काका की..... प्रभुदयाल गर्ग ( काका हाथरसी)


नाम बड़े दर्शन छोटे / काका हाथरसी 

दूर युद्ध से भागते, नाम रखा रणधीर,
भागचंद की आज तक सोई है तकदीर।
सोई है तकदीर, बहुत-से देखे-भाले,
निकले प्रिय सुखदेव सभी, दु:ख देने वाले।
कह ‘काका’ कविराय, आंकड़े बिल्कुल सच्चे,
बालकराम ब्रह्मचारी के बारह बच्चे।

चतुरसेन बुद्धू मिले, बुद्धसेन निर्बुद्ध,
श्री आनन्दीलालजी रहें सर्वदा क्रुद्ध। 
रहें सर्वदा क्रुद्ध, मास्टर चक्कर खाते,
इंसानों को मुंशी, तोताराम पढ़ाते,
कह ‘काका’, बलवीरसिंहजी लटे हुए हैं,
थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुए हैं।

बेच रहे हैं कोयला, लाला हीरालाल,
सूखे गंगारामजी, रूखे मक्खनलाल।
रूखे मक्खनलाल, झींकते दादा-दादी-
निकले बेटा आसाराम निराशावादी।
कह ‘काका’, कवि भीमसेन पिद्दी-से दिखते,
कविवर ‘दिनकर’ छायावादी कविता लिखते।

आकुल-व्याकुल दीखते शर्मा परमानंद,
कार्य अधूरा छोड़कर भागे पूरनचंद।
भागे पूरनचंद, अमरजी मरते देखे,
मिश्रीबाबू कड़वी बातें करते देखे।
कह ‘काका’ भण्डारसिंहजी रोते-थोते,
बीत गया जीवन विनोद का रोते-धोते।

शीला जीजी लड़ रही, सरला करती शोर,
कुसुम, कमल, पुष्पा, सुमन निकलीं बड़ी कठोर।
निकलीं बड़ी कठोर, निर्मला मन की मैली
सुधा सहेली अमृतबाई सुनीं विषैली।
कह ‘काका’ कवि, बाबू जी क्या देखा तुमने?
बल्ली जैसी मिस लल्ली देखी है हमने।
काका हाथरसी
........जारी अगले अंक में भी

सोमवार, 24 जुलाई 2017

काका की कुण्डलियाँ..... प्रभुदयाल गर्ग ( काका हाथरसी)

नाम बड़े दर्शन छोटे......काका हाथरसी

नाम-रूप के भेद पर कभी किया है गौर?
नाम मिला कुछ और तो, शक्ल-अक्ल कुछ और।
शक्ल-अक्ल कुछ और, नैनसुख देखे काने,
बाबू सुंदरलाल बनाए ऐंचकताने।
कह ‘काका’ कवि, दयारामजी मारे मच्छर,
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर।

मुंशी चंदालाल का तारकोल-सा रूप,
श्यामलाल का रंग है, जैसे खिलती धूप।
जैसे खिलती धूप, सजे बुश्शर्ट हैण्ट में-
ज्ञानचंद छ्ह बार फेल हो गए टैंथ में।
कहं ‘काका’ ज्वालाप्रसादजी बिल्कुल ठंडे,
पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे।

देख, अशर्फीलाल के घर में टूटी खाट,
सेठ छदम्मीलाल के मील चल रहे आठ।
मील चल रहे आठ, कर्म के मिटें न लेखे,
धनीरामजी हमने प्राय: निर्धन देखे।
कह ‘काका’ कवि, दूल्हेराम मर गए कंवारे,
बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बिचारे।

दीन श्रमिक भड़का दिए, करवा दी हड़ताल,
मिल-मालिक से खा गए रिश्वत दीनदयाल।
रिश्वत दीनदयाल, करम को ठोंक रहे हैं,
ठाकुर शेरसिंह पर कुत्ते भोंक रहे हैं।
‘काका’ छ्ह फिट लंबे छोटूराम बनाए,
नाम दिगम्बरसिंह वस्त्र ग्यारह लटकाए।

पेट न अपना भर सके जीवन-भर जगपाल,
बिना सूंड के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल।
मिलें गणेशीलाल, पैंट की क्रीज सम्हारी-
बैग कुली को दिया चले मिस्टर गिरिधारी।
कह ‘काका’ कविराय, करें लाखों का सट्टा,
नाम हवेलीराम किराए का है अट्टा। 
काका हाथरसी
........जारी अगले अंक में भी



रविवार, 23 जुलाई 2017

एकलव्य की विडम्बना.........राम कुमार आत्रेय


एकलव्य ने  गहन आत्मविश्वास के   साथ    गुरु   द्रोणाचार्य के कक्ष  में   अनुमति  माँगकर प्रवेश  किया। प्रवेश  करते ही  उसने   गुरु  द्रोणचार्य के   चरणों  को  स्पर्श   करते हुए नमस्कार किया।  द्रोणाचार्य  का हाथ आशीर्वाद  के  लिए अभ्यासवश जरा सा- ही ऊपर उठा था ; लेकिन एकलव्य के तन पर फटे–पुराने वस्त्रों  पर दृष्टि पड़ते ही  वह किसी मुर्दे  की तरह अपने पूर्व   के  स्थान पर गिरकर स्थिर    हो गया।

द्रोणाचार्य के   होठों   के बीच  से  एक अनचाहा–सा स्वर  निकला,  ‘‘कहिए   कैसे आना हुआ?’’

‘‘आपकी अकादमी  में    मैं   शस्त्र  विद्या  का ज्ञान प्राप्त करना  चाहता हूँ,    गुरुजी।  मुझे अकादमी में  प्रवेश दिलाकर कृतार्थ  करें।’’ एकलव्य के स्वर  में  निहित  विनम्रता गिड़गिड़ाहट में   परिवर्तित  होकर रह गई  थी।

‘‘तुम्हें   यहाँ  प्रवेश  नहीं दिया जा सकता बच्चे!’’  टका  –सा  उत्तर दिया था गुरु   द्रोण ने।

‘‘इस  प्रकार  इनकार मत कीजिए गुरु जी। पिछले जन्म  में तो   आपने मुझे भील  बालक होने  के कारण  प्रवेश  नहीं दिया था।  बाद में   आपको  गुरु मानकर मैंने  शस्त्र  विद्या में   स्वयं ही पारंगतता  हासिल   कर ली । इस पर आपने गुरु–दक्षिणा के  रूप में   मेरा   अंगूठा ही  माँग लिया था।  परन्तु मैंने  बाद में  घोर   तपस्या  की ताकि मैं   क्षत्रिय जाति में   जन्म लेकर आपसे शस्त्र विद्या सीख सकूँ।  मुझे क्षत्रिय  जाति में तो   जन्म नहीं मिला,   परन्तु   प्रभु ने   ब्राह्मण  के घर अवश्य जन्म दे  दिया।  ब्राह्मण तो सभी  जातियों   से  श्रेष्ठ  होता है   न गुरु जी। आप भी तो ब्राह्मण   ही  हैं।  इस बार मुझे  प्रवेश    दे  ही   दीजिए प्रभु।’’ एकलव्य द्रोणाचार्य  के  चरणों में   गिरकर गिड़गिड़ाने  लगा था।

‘‘सुनो बच्चे,   यदि तुम इस बार भील  बालक  के रूप  में   भी   यहाँ  प्रवेश लेने आते  तो भी   तुम्हें   मैं  प्रवेश   देने से इनकार नहीं  करता। मेरी विवशता   है   कि इस बार ब्राह्मण बालक होने  पर भी  यहाँ  प्रवेश  नहीं दे  पाऊँगा। कारण तुम्हारे  फटे  –पुराने वस्त्र।  बता  रहे हैं    कि तुम निर्धन  हो।  इसलिए।’’

एकलव्य भूल   गया था  कि गुरुजनों  की बात  काटना अशिष्टता  समझी जाती है।  वह स्वयं पर नियंत्रण   नहीं रख पाया।  बोल  पड़ा‘‘निर्धन  होना भी  पाप हो  गया,  गुरु जी?’’

‘‘बात यह है   एकलव्य अब इस अकादमी में   पढ़ने  वाले  छात्रा यु​धिष्ठिर,    अजु‍र्न,   भीम,तथा    दुर्योधन बनकर नहीं  बल्कि आईएएस,  आईपीएस, इन्जीनियर  तथा  डाक्टर बनकर राष्ट्र  की  सेवा करते हैं,   देश को चलाते   हैं।  इसके लिए वे  प्रति वर्ष  एक लाख दस हजार रुपये  छात्रावास शुल्क भी   चुकाते हैं।  प्रतिमास  पाँच हजार रुपये  शिक्षण  शुल्क तथा पाँच हजार रूपये   छात्रावास शुल्क भी   उन्हें   चुकाना   होता है।  क्या तुम ऐसा  कर सकते हो?’’

‘‘नहीं गुरुदेव। मेरे माता–पिता तो दो वक्त का भोजन ही मुश्किल से जुटा पाते  हैं।’’ ऐसा कहते  हुए एकलव्य की  गर्दन झुक  गई  थी।

‘‘यदि मैं   तुम   जैसे  निर्धन छात्र को  उनके   साथ   कक्षा   में   बिठाऊँगा    ,तो वे सब तुम्हारे साथ   बैठने से  इनकार कर देंगे।  छात्रों   के माता–पिता   भी   किसी अन्य अकादमी में   उन्हें प्रवेश दिलवाना   पसन्द करेंगे,  न कि मेरी  अकादमी में।  यह प्रश्न जाति का नहीं,  धन का है    बच्चे।  जाओ  किसी सरकारी विद्यालय में    प्रवेश लेकर   जो भी   सीखने   को मिले सीख लेना।  और   नहीं  तो  वे तुम्हें वे  तुम्हें  अँगूठा    लगाना   तो सिखा   ही देंगे। हाँ,  इस बार  तुम्हारा अँगूठा  नहीं  माँगूँगा।’’ द्रोण  ने   एकलव्य के समक्ष  स्थिति   पूरी तरह स्पष्ट  कर दी।

गत जीवन में अँगूठा    कटवाकर सहानुभूति अर्जित कर लेने वाला  एकलव्य समझ नहीं पा रहा था  कि अपने दाएँ   हाथ के अँगूठे  को स्वयं  काटकर फेंक   दे  अथवा  आयु  पर्यन्त व्यर्थ    में  ही उसका   बोझ  ढोता रहे।
-राम  कुमार आत्रेय

-0-सम्पर्क-0-   
राम  कुमार आत्रेय
864–ए/12,आजाद   नगर,
कुरुक्षेत्र  136119 हरियाणा

शनिवार, 22 जुलाई 2017

बचपन-बचपन.....मीरा जैन


बेटे   दिव्यम  के जन्मदिन   पर गिफ्ट  में    आए    ढेर  से   नई तकनीक के  इलेक्ट्रॉनिक खिलौनों   में  कुछ को दिव्यम   चला   ही  नहीं पा रहा था।  घर के अन्य   सदस्यों ने   भी हाथ आजमाइश  की लेकिन किसी को   भी सफलता नहीं मिली। तभी काम वाली   बाई सन्नो का दस वर्षीय लड़का  किसी काम  से घर आया  सभी  को खिलौने के  लिए बेवजह मेहनत करता देख वह  बड़े   ही  धीमे व संकोची लहजे   में   बोला-‘‘आँटी जी! आप कहें  तो  खिलौनों को   चलाकर बता दूँ?’

पहले  तो मालती उसका चेहरा देखती रही फिर  मन ही मन सोच रही थी  कि इसे दिया तो  निश्चित ही तोड़ देगा, फिर भी  सन्नो का लिहाज कर बेमन से हाँ  कर दिया  और देखते ही  देखते मुश्किल खिलौने को उसने   एक बार में   ही स्टार्ट  कर दिया। सभी आश्चर्यचकित मालती ने  सन्नों  को   हँसते हुए ताना मारा-‘वाह  री  सन्नो! यूँ   तो कहेगी   पगार कम पड़ती  है, और इतने  महँगे    खिलौने   छोरे को दिलाती है   जो  मैंने   आज तक  नहीं  खरीदे?’

इतना   सुनते  ही सन्नो की  आँखें  नम हो   गई ।   उसने रुँधे   गले से  कहा-‘‘बाई  जी! यह खिलौनों  से खेलता नहीं; बल्कि खिलौनों  की  दुकान पर काम करता है।’’ जवाब सुन  मालती   स्वयं को लज्जित महसूस कर सोचने लगी  दोनों   के  बचपन में कितना अंतर है।
-मीरा  जैन

-0-सम्पर्क -0-
मीरा  जैन   516, 
सॉईनाथ  कालोनी, 
सेठी नगर, 
उज्जैन, मध्यप्रदेश

बुधवार, 19 जुलाई 2017

उधर चेहरा बदल लेते हैं लोग....अमृत

हवा के रुख के साथ ही, मसीहा बदल लेते हैं लोग।
इधर मौसम बदलते हैं, उधर चेहरा बदल लेते हैं लोग।।

बदल  बदल कर लोग, बदल रहे हैं ज़िन्दगी।
इधर टोपी बदलते  हैं, उधर  सेहरा  बदल लेते है लोग।।

कौन जाने कैसे पूरा करेंगे, वे अपना सफर।
इधर  किश्ती  बदलते हैं, उधर किनारा बदल लेते हैं।। 

रंग बदलना तो कोई गिरगिट, आदमजात से सीखे।
इधर चेहरा बदलते हैं, उधर मोहरा बदल लेते हैं लोग।।

हवा के रुख के  साथ ही, मसीहा बदल लेते हैं लोग।
इधर मौसम बदलते हैं, उधर चेहरा बदल लेते हैं लोग।।

-अमृत

रविवार, 16 जुलाई 2017

‘पगलिया’.......प्रशान्त पांडेय

एगो कुसुमिया है. हड़हड़ाते चलती है. मुंह खोली नहीं की राजधानी एक्सप्रेस फेल. हमरे यहां काम करने आती है. टेंथ का एक्जाम था तो काम छोड़ दी थी. दू-तीन महीना बाद अब जा के फिर पकड़ी है.

"तब सब ठीक है?" हम अइसही पूछ लिए. गलती किये। माने कुसुमिया का पटर-पटर चालू।

"सब ठीके न है....कमाना, खाना है..... चलिए रहा है......भाभी लेकिन धुक-धुक भी हो रहा है....परीक्षा में पास हो जाएंगे न?"

"काहे नहीं...मेहनत की हो, निकल जाओगी,"

"हाँ.....आ जरूरी भी न है, आज कल कोइयो तो पढ़ले-लिखल न खोजता है?"

तभी हमको याद आया की काम छोड़ने से पहले कुसुमिया बोली थी उसका सादी होने वाला है.

उस समय तो हम यही सोचे थे की आदिवासी लोग है, गरीब हईये है.......माई-बाप जल्दी सादी करके काम निपटा देना चाह रहा होगा। छौ  गो बच्चा में चार गो बेटिये है; आ ई सबसे बड़ी है.

अब हमरो मन कुलबुला रहा था.

पूछ लिए: "का हुआ तुम्हरा सादी का?"

"सादी? काहे ला सादी?"

"तुम्ही तो बोली थी छुट्टिया से पहले,"

"अरे! तो अभी घर में बोले नहीं हैं न....अइसे कइसे माँ से बोल दें.....अभी दू-तीन साल बाद देखेंगे,"

"दू-तीन साल बाद?"

"भाभी, सादी तो हम ही तय किये हैं....लेकिन लड़कवा का अभी कोई नौकरिये नहीं है.... एक्के बात है की खाता पीता नहीं है... ऊ भी पढ़ाइये न कर रहा है!"

"तुम्हरा माई-बाप? ऊ लोग भी तो खोज रहा होगा?"

"माँ को ढलैया के काम से फ़ुरसते नहीं है और बाप तो जानबे करते हैं.....ऊ कुछ करता तो हम लोग को काहे काम करना पड़ता?"

"अरे जो पूछ रहे हैं ऊ बता न.....सदिया करेगी की नहीं?”

"नहीं भाभी, अभिये ई सब पचड़ा में कौन पड़े...अभी कमा रहे हैं, खेला-मदारी चलिए रहा है........सादी कौन करेगा रे अभी? बक्क!"

जाने केतना और बकबकाने के बाद गयी तब हम, आ ई, खूब हँसे। ई हो घरे पर थे. उसका सब बात सुने थे.

"एतना साल सादी को हो गया, सोच सकते हैं की अपना चक्कर के बारे में कउनो लईकी अइसे बात करेगी?" हम इनसे पूछे. ई खाली हंस रहे थे.

उधर से अम्मा आईं. पूजा पर बइठे-बइठे उहो सब सुन लीं थीं. प्रसाद बाँटते हुए कहीं: "जाए दो! कम से कम इमनदारी से मान तो रही है. न तो इसी के लिए आज-काल केतना न करम हो जाता है."

-प्रशान्त पांडेय


शनिवार, 1 जुलाई 2017

थैंकू भैया....डॉ. आरती स्मित


वह माँ के साथ ज़बरन पाँव घसीटती चली जा रही थी। उसकी नज़रें बार-बार सड़क के दोनों ओर सजी दुकानों पर जा-जाकर अटक जातीं। मन हिलोर मारता कि माँ से कुछ कहे, मगर उसे डर था कि माँ से अभी कुछ कहने का मतलब यहीं बीच सड़क पर मार खाना होगा। यों भी, आज माँ का मूड कुछ ठीक नहीं, कल मालकिन ने ताकीद की थी, देर न करना, मगर देर हो ही गई, इसलिए काम में हाथ बँटाने को माँ उसको भी ज़बर्दस्ती साथ ले जा रही थी। अबीर~, गुलाल के रंग-बिरंगे पैकेट उसे बुलाते, तरह-तरह के रूपों वाली पिचकारियाँ, गुब्बारे सब उसे उसे इशारा करते से लगते। वह टूटी चप्पल घसीटती अधमरी सी चलती रही।
"अरी,चल ना! का हुआ, पाँव में छाले पड़ गए का.... एक तो ऐसे ही एतना देर हो चुका, जाने मालकिन का पारा केतना गरम होगा? परवी नै दी तो का फगुआ का बैसाखी। सारी भी तो दे के खातिर बोले रही, बिटवा का उतारन भी। चल न तुमको साथ काम करते देखेगी तो मन पसीजेगा जरूर, कुछ न कुछ दइए देगी।"
माँ बड़बड़ाती हाथ खींचती चलती रही।
"गली के मोड़ पर पहले पचमंज़िला मकान मालकिन का ही तो है। हे भगवान! उसका बेटा घर में न हो! केतना तंग करता है हमको।'' नौ वर्षीया निक्की ने मन ही मन ईश्वर को याद किया। कभी मंदिर गई नहीं, भगवान स्त्री हैं या पुरुष, उसको भ्रम बना हुआ है, मगर जब मुसीबत नज़र आती है,वह झट से भगवान को पुकार लेती। मालकिन बोली की कड़ी थी, मगर उसे कभी डाँटा नहीं, माँ को ज़रूर डाँटती कि इसे स्कूल भेजा कर! घर में बिठाकर अपने जैसा बनाएगी क्या?" उसे मालकिन से डर नहीं लगता मगर उसके बेटे ओम से लगता है, वह हमेशा छेड़ता रहता। उससे थोड़ा बड़ा है तो का? अकड़ू कहीं का!"
चप्पल उतार कर अभी बैठक में क़दम रखा ही था कि ओम दिख गया। वह सकपकाती हुई माँ के बगल जा खड़ी हुई।
"जा सीढ़ियों पर झाडू लगा दे, हम आते हैं कमरा में झाड़ू लगाकर।" वह हिली नहीं, सकपकाई सी खड़ी रही रही।
"अरी का हुआ, सुनाई कम देत है का?" माँ धीमी आवाज़ में मगर रोष में बोली।
"वो - वो- " वह हकला गई।
"चल जा, जल्दी काम कर,"कह कर माँ अंदर कमरे में चली गई। ओम चुपचाप कब उसके पीछे खड़ा हो गया, उसे पता ही न चला। अचानक उसे पाकर वह भीतर तक सिहर गई। ओम का हाथ पीछे था। "अब फिर यह मेरे बाल खींचेगा या चिकोटी काटेगा, हे भगवान का करें? आज तो चिल्ला कर रोने लगेंगे हम, मालकिन को पता चल जाएगा कि ...."
"निक्की," वह आगे सोच पाती, तभी ओम ने धीरे से उसे पुकारा और हाथ आगे बढ़ा दिया। उसके हाथ में रंग और अबीर पुड़िया की थैली और प्यारी-सी पिचकारी थी।
"यह तुम्हारे लिए।"
" नहीं-नहीं हमको नहीं चाहिए।" वह छिटककर दूर जा खड़ी हुई, तभी मालकिन कमरे में आ गई ।
"ले लो बेटा! भैया ने तुम्हारे लिए ख़रीदा है।" वह हैरान होकर कभी रंग और पिचकारी देखती, कभी ओम और मालकिन को। "तो क्या ओम उसे छोटी बहन समझ कर उसे तंग करता था, यही बात अच्छे से समझा भी सकता था, डरा कर रख दिया हमको" वह मन ही मन बुदबुदाई। साँवले चेहरे पर मुस्कान खिली और गुलाबी रंग निखर आया। होंठ हिले और बोल फूटे, "थैंकू भैया!"








-डॉ. आरती स्मित