रविवार, 13 अप्रैल 2014

लोकतंत्र के डंके पे, मारो ऐसी चोट...........विशाल डाकोलिया



कैसे बीतेंगे आने वाले पाँच बरस,
यह तय करेगा आपका एक वोट,
फिर ना कोई सोए भूखा,
....... कि लोकतंत्र के डंके पे, मारो ऐसी चोट ।

अब ना हो ऐसे चीर हरण,
ना शीश कटें जवानों के,
हर खेत में लहके धानी चुनर,
ना लटके धड़ किसानों के ।
....... कि लोकतंत्र के डंके पे, मारो ऐसी चोट ।

अब ना कोई लूट सके,
इस धरा के खजानों को,
अब ना कोई बाँट सके,
भजनों को अजानों को।
........ कि लोकतंत्र के डंके पे, मारो ऐसी चोट ।

निश्चल, निर्भय, शिक्षण हो,
हर बेटी बेटे का अधिकार,
कोई ना छीने अपने हक़,
कांपे थर-थर भ्रष्टाचार ।
........ कि लोकतंत्र के डंके पे, मारो ऐसी चोट ।

हो अश्वमेध फिर विश्व पटल पर,
भारत के अरमानों का,
मिटे जाल सूद, ऋणों का,
डरने और धमकाने का,
....... कि लोकतंत्र के डंके पे, मारो ऐसी चोट ।

देख संभलकर चलना रे,
ओ लोकतंत्र की सेना रे,
पग-पग बैठे लूटने वाले,
बनकर तोता मैना रे,
...... कि लोकतंत्र के डंके पे, मारो ऐसी चोट ।

ना हो बेकार, तेरी मोहर,
तू दिखला दे ऐसा जौहर,
बन पारखी चुन ऐसा राजा रे,
हो न्याय, खुशियों के नौबत बाजा रे,
........ कि लोकतंत्र के डंके पे, मारो ऐसी चोट ।


-विशाल डाकोलिया
(साभारः वेब दुनिया )


4 टिप्‍पणियां:

  1. मतदान हमारा सिर्फ अधिकार ही नहीं कर्तव्य भी है।

    सादर

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  2. आपकी कविता की हर पंक्ति में सीधी पुकार है कि वोट सिर्फ़ कागज़ पर निशान नहीं, बल्कि आने वाले पाँच साल की दिशा है। मुझे सबसे ज़्यादा ये पंक्ति छू गई कि वोट से भूख, भ्रष्टाचार और बंटवारे पर चोट करनी है। सच में, हम अक्सर शिकायत करते हैं लेकिन वोट डालते वक्त ही असली मौका मिलता है बदलाव लाने का।

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