एक प्लेट हलवे की कीमत
जगदीश प्रसादजी चुपचाप बैठे हुए बड़ी बहू गीता की बातों को सुनते जा रहे थे !
लग रहा था कि किसी भी समय वो अपना धीरज खो बैठेंगे, पर किसी तरह उन्होंने अपने-आप को काबू में रखा हुआ था !
गीता थी कि अनवरत बोलती जा रही थी !
बात बस इतनी सी थी कि पिछले 3-4 दिन से जगदीश प्रसादजी के दांतों में कष्ट हो रहा था, वे दर्द से बेहाल थे!
डॉक्टर को दिखाया था, उसने दांत को निकलवाने की सलाह दी थी, पर दर्द के कारण ये संभव न था, अतः डॉक्टर ने दर्द कम करने की दवा दी थी और कहा था कि दर्द खत्म हो जाए तभी दांत निकाला जाएगा !
दांत-दर्द की वजह से वे कुछ खा-पी नहीं पा रहे थे, इसीलिए बहू को खिचड़ी बनाने के लिए कहा था, पर उसने दो सूखी चपाती और सूखी सब्जी बेटे के हाथ भिजवा दी थी !
जगदीश प्रसादजी ने थाली को हाथ भी नहीं लगाया ! उधर बहू गीता जोर-जोर से चिल्ला-चिल्ला कर बोल रही थी कि जब खाना नहीं होता तो पहले से ही बता दिया करो, कितना भी करो इनके नखरे खत्म नहीं होते !
वो ये बात समझने के लिए तैयार ही नहीं थी कि दांत-दर्द की वजह से ससुरजी चपाती चबाने में असमर्थ हैं, और वह गुस्से में थाली उठाकर बाहर चली गयी !
जगदीश प्रसादजी ने एक गहरी सांस ली और अपनी छड़ी उठाकर अपने लंगोटिया दोस्त कैलाशनाथजी के घर की ओर चल दिए ! आज उनका दिल बहुत उदास था !
अपनी दिवंगत पत्नी की याद उन्हें आने लगी और सड़क के किनारे बनी एक बेंच पर वे बैठ गए ।
अतीत ने तीव्रता के साथ उनकी यादों में प्रवेश किया !
जगदीश प्रसादजी सरकारी कार्यालय में सेवारत थे ! उनके 3 बेटे थे अनिल, सुनील और राजेश ! तीनों ही पढ़ने में अच्छे थे !
उनकी पत्नी, कांता कम पढ़ी लिखी ज़रूर थी लेकिन वह एक मेहनती व स्वाभिमानी स्त्री थी,
जो कुशलता के साथ पूरे घर का संचालन करती थी !
मितव्यता क्या होती है - यह जगदीश प्रसादजी ने अपनी पत्नी से ही सीखा था! इसीलिए महीने के अंत में अपनी पूरी पगार वो पत्नी के हाथ में सौंप देते थे और खुद पूरी तरह निश्चिन्त हो जाते थे !
घर के मामलों में वे कभी भी नहीं बोलते थे, पर पत्नी को जब भी उनकी सलाह की ज़रुरत होती तो वे हरदम उसके साथ होते थे !
समय के साथ उनकी उन्नति होती गयी और बच्चे भी अच्छी शिक्षा प्राप्त कर चुके थे। अपने जीवनकाल में उनकी पत्नी ने एक जो सबसे अच्छा काम किया था वो था - मकान बनवाना !
शहर की एक अच्छी सी कालोनी में उसने अपने सपनो का संसार जो बसाया था !
जगदीश प्रसादजी ने ऑफिस से लोन लेकर व कुछ दोस्तों से मदद लेकर, पत्नी के इस सपने को पूरा किया था !
पहले मकान एक मंजिला था पर जब बच्चे बड़े हो गए तो जगदीश प्रसादजी ने हिम्मत करके मकान की दो मंजिलें और भी बनवा दी थीं ! उनके तीनों बेटों की शादी हो गयी थी और तीनों बेटों के दो-दो बच्चे भी हो गए थे !
जगदीश प्रसादजी अपने छोटे बेटे के साथ निचली मंजिल पर रहते थे !
शेष दोनों बड़े भाई अनिल व सुनील, दूसरी और तीसरी मंजिल पर रहते थे !
रसोई सबकी अलग-अलग थी बस त्यौहार वाले दिन सब एक जगह इकट्ठे होकर त्यौहार मनाते थे !
मुँह से तो कोई कुछ नहीं कहता था, पर छोटी बहू को बहुत तकलीफ होती थी कि सारा काम मुझे ही करना पड़ता है, दोनों भाभियाँ बस हाथ हिलाने के लिए आ जाती हैं ! उधर दोनों का कहना था कि भई, रसोई तो तुम्हारी है तो जिम्मेदारी भी तुम्हारी है !
पर ये बातें कभी भी झगड़े का रूप धारण नहीं कर पाती थीं, क्योंकि कांताजी खुद भी एक मेहनती महिला थी जो उम्र के इस दौर में भी चुस्त दुरुस्त थीं, सारा दिन कुछ न कुछ करते रहना उनकी आदत थी !
इसी कारण काम को लेकर तीनों बहुएँ ही उन पर निर्भर थीं !
जगदीश प्रसादजी जब भी अपनी पत्नी के साथ बैठते थे तो कहते थे के अब हमें किसी प्रकार की चिंता नहीं है ! पेंशन तो आएगी ही, हम दोनों का आराम से गुजारा हो जाएगा !
जवानी में जो सपने मैं तुम्हारे पूरे नहीं कर पाया- वो मैं अब करूँगा !
और पत्नी हल्के से मुस्करा कर अपनी सहमति प्रकट कर देती थी , पर जगदीश प्रसादजी का ये सपना पूरा नहीं हो पाया!
और एक दिन पत्नी अचानक उन्हें अकेला छोड़कर हमेशा के लिए चली गई !
पत्नी के जाने से, जगदीश प्रसादजी की तो जैसे दुनिया ही उजड़ गयी !
पर होनी को कौन टाल सकता था !
जिस पत्नी ने इतने यत्न से मकान की नींव बनाई थी उसमें अब दरारें पड़नी शुरू हो गईं थीं !
हालात अब इतने बदल गए थे कि त्यौहार के समय, घर के घर में, एक दूसरे को बधाई देने में भी सब को कष्ट होने लगा था !
कुल मिलाकर, सब अपनी-अपनी गृहस्थी में मस्त हो गए थे !
एक अकेले जगदीश प्रसादजी ही रह गए थे ,
जो सबकुछ समझ रहे थे, पर उम्र के इस दौर में पत्नी के जाने के बाद वे अपने आप को असहाय सा महसूस करने लगे थे !
दो दिन पहले ही वो जब अचानक घर में घुसे, तो उन्हें बेटों व बहुओं की आवाज़ सुनाई दी,
कौतूहलवश, वे चुपचाप खड़े हो गए !
उनके दुःख का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने सुना कि तीनों बेटों ने उन्हें दो-दो महीने के लिए
बाँट लिया है !
छोटी बहू को शिकायत थी कि जब मकान में सबका बराबर का हिस्सा है, तो पिताजी की सेवा में भी सबका बराबर का हिस्सा होना चाहिए ! मैं भी थोड़ा आज़ाद रहना चाहती हूँ, जो पिताजी के कारण संभव नहीं हो पा रहा!
तकलीफ तो सब को हो गयी थी, पर कोई चारा ना था !
अब जगदीश प्रसादजी तीन हिस्सों में बँट गए थे !
ज़िन्दगी यूँ ही चलती जा रही थी, दो महीने एक बेटे के पास, दो महीने दूसरे बेटे के पास और फिर तीसरे के पास!
मुसीबत तो तब आती थी, जब कभी, महीने के अंत में यदि उनकी तबियत ख़राब हो जाती थी, तो उनका इलाज यह सोचकर नहीं कराया जाता था कि अब दो-चार दिन के बाद दूसरे बेटे के पास तो जाना ही है वो ही इलाज करा देगा !
आज जगदीश प्रसादजी के सब्र का बाँध टूट गया था !
दो दिन पहले ही उन्होंने दांत निकलवाया था ! उनका दिल कुछ मीठा कुछ गर्म कुछ नरम खाने का हो रहा था उन्होंने अपनी मँझली बहू को हलवा बनाने के लिए कहा, तो बहू का जवाब था कि मैं अभी खाली नहीं हूँ आपको और कुछ तो सूझता नहीं है, इस उम्र में भी खाने की पड़ी है !
दो दिन के बाद मोना (छोटी बहू) के पास जाएँगे वहीं खा लेना ! मैं किटी पार्टी के लिए लेट हो रही हूँ...
जगदीश प्रसादजी के सब्र का पैमाना छलक गया ! आज तक वो अपने बेटे बहुओं की सब ज्यादतियाँ बर्दाशत कर रहे थे ! पर आज तो हद हो गयी ! आँखें आँसुओं से भर गईं और वे कैलाशजी के घर चल दिए !
कैलाशजी उनके बचपन के मित्र थे ! शिक्षाप्राप्ति से लेकर सेवानिवृति तक दोनों साथ ही रहे ! कैलाशनाथ जी थोड़े व्यवहारिक बुद्धिवाले व्यक्ति थे ! वे दिल से नहीं दिमाग से सोचते थे ! उन्होंने अपने दोस्त को कई बार समझाया था कि थोड़ा रौब रखा करो ! तुम्हे किस बात की कमी है? मकान अभी तुम्हारे नाम है !
बेटे-बहू जब भी सिर पर बैठने की कोशिश करें, तो धमकी दे दिया करो, कि किसी को भी हिस्सा नहीं दूँगा !
पर जगदीश प्रसादजी को ये बात नामंजूर थी ! उनका कहना था कि जब मकान बनवाया ही बच्चों के लिए है तो ऐसा सोचना किसलिए ? लेकिन आज उन्हें लग रहा था कि अब कुछ करने का समय आ ही गया है !
कैलाश नाथजी से सलाह मशवरा करके, जगदीश प्रसादजी घर आए और अपनी पत्नी की तस्वीर के सामने आकर खड़े हो गए ! जैसे मन ही मन उनसे विचार विमर्श कर रहे हों !
एक दृढ निश्चय उनके चेहरे पर आया और वो भूखे पेट ही सो गए ! किसी ने भी उनसे खाने के लिए नहीं पूछा !
उन्हें पता था कि उनके तीनों बेटे पत्नियों के साथ गर्मी की छुट्टियों में बाहर जा रहे हैं !
किसी को भी यह ख्याल नहीं था कि पिताजी क्या खाएँगे ? कैसे रहेंगे ??
जगदीश प्रसादजी ने भी कुछ नहीं कहा !
उनका मानना था कि जब बेटे ही माँ-बाप को नहीं पूछते तो बहुओं से क्या उम्मीद रखना ! बहुएँ तो चाहती ही हैं कि किसी की सेवा न करनी पड़े ! वे तो सिर्फ़ अपने पति और अपने बच्चों में ही अपना परिवार देखती हैं !
सास-ससुर उन्हें बोझ लगने लगते हैं !
वे अपने अधिकारों के प्रति तो सचेत रहती हैं,
पर अपने कर्तव्यों की तरफ से आँख मूँद लेती हैं !
तीनों बेटों के, उन्हें इस तरह तन्हां छोड़ कर घूमने चले जाने के बाद, जगदीश प्रसादजी अपने मित्र के साथ प्रॉपर्टी डीलर के पास गए !
प्रॉपर्टी डीलर कैलाश नाथजी के पुत्र का ख़ास दोस्त था उनसे मिलकर अपनी व्यथा बताई कुछ सलाह मशवरा किया व वापस आ गए !
20 दिन के बाद जब तीनों बेटे बहु प्रसन्नचित घर लौटे तो मकान पर ताला देखकर सबकी त्योरियाँ चढ़ गईं !
छोटी बहू मोना बोलने लगी- हद हो गई लापरवाही की,
पता था कि हम आज आ रहे हैं तो घर नहीं बैठ सकते थे !
उसके गुस्से का कारण भी था ! क्योंकि ये दो महीने पिताजी को उसके पास रहना था !
काफी देर इंतज़ार करने के बाद अनिल व सुनील कैलाश नाथजी के घर पहुँचे तो उनके पैरों तले की ज़मीन खिसक गयी, जब उन्हें पता चला कि पिताजी ने मकान डेढ़ करोड़ में बेच दिया है और अब वे कहाँ हैं किसी को कुछ पता नहीं !
तीनों बेटे-बहुओं को समझ नहीं आ रहा था कि ये सब क्या हो गया है !
उन्हें लग रहा था कि यह एक भद्दा मजाक है जो पिताजी ने उनके साथ किया है ! दूर से देखने पर तो दुनिया वालों को भी यही लगता !
गुस्से में तीनों भाई उबल रहे थे !
पिताजी ऐसा कैसे कर सकते हैं ? ये उन सबकी समझ से बाहर था !
कोई चारा न देखकर, तीनों बेटे अपनी-अपनी ससुराल चले गए !
अगले दिन बड़े बेटे के पास कैलाश नाथजी का फ़ोन आया और उन्होंने तीनों पुत्रों को अपने पास आने के लिए कहा कि कुछ आवश्यक सूचना देनी है !
शाम तक का भी इंतज़ार सबको भारी पड़ रहा था !
कैलाश नाथजी के पास से जो सूचना उन्हें मिली, उससे तीनों की जुबान पर ताला लग गया ! दिमाग जैसे कुंद हो गया ! सोचने-समझने की शक्ति ने, जैसे साथ ही छोड़ दिया !
कैलाश नाथजी के अनुसार जगदीश प्रसादजी हरिद्वार चले गए हैं और उन्होंने वहाँ पर एक सुंदर छोटा सा घर ले लिया है तथा अब वे वहीं रहेंगे !
ये समाचार पूरे परिवार पर एक भारी प्रहार था ! बहुत अनुनय-विनय करने पर कैलाश नाथजी से वे पिताजी का पता प्राप्त कर सके और हरिद्वार की ओर उड़ चले !
पिताजी का यह कदम उनकी समझ से बाहर था !
हरिद्वार पहुँचकर, पिताजी को देखकर एक और झटका लगा कि पिताजी तो एकदम प्रसन्नचित और स्वस्थ लग रहे थे !
बेटे-बहुओं को देखकर उनके होंठो पर मुस्कान आ गई !
प्रसन्नता पूर्वक उनका स्वागत किया और 'दीपक' कहकर किसी को आवाज़ दी !
आवाज़ सुनते ही 10-11 साल का एक लड़का सामने आकर खड़ा हो गया !
सबने कोतूहल से उसे देखा ! जगदीश प्रसादजी ने सबकी नजरों को नज़रअंदाज़ किया और दीपक को 6 प्लेट गरम-गरम हलवा लाने के लिए कहा !
इसी बीच जगदीश प्रसादजी सबसे बच्चों की कुशलता के बारे में जानते रहे !
तीनों बेटे एक-दूसरे की तरफ देख रहे थे कि कौन पहल करे ? पर किसी कि हिम्मत नहीं हो पा रही थी कुछ पूछने की !
इतने में दीपक एक ट्रे में गर्मागर्म हलवे की 6 प्लेट लेकर आ गया और सबको एक-एक प्लेट पकड़ा दी ! मगर किसी ने भी प्लेट को हाथ नहीं लगाया !
किसी को बोलते न देखकर, जगदीश प्रसादजी ने कमान अपने हाथ में ली और बोलने लगे...
तुम सबको हैरानी हो रही होगी और गुस्सा भी आ रहा होगा कि पिताजी को ये क्या सनक सवार हो गयी है?
लेकिन कारण भी तुम लोग जानते हो !
मैंने और तुम्हारी माँ ने, तुम लोगों को कभी भी किसी प्रकार की कमी नहीं आने दी !
तुम्हारी माँ ने मेरी, एक अकेली तनख़्वाह से, जीवनभर कितनी कुशलता से घर को चलाया...
ये मुझे, तुम सब को बताने की जरूरत नहीं है !
और आज मुझे ये कहने में कोई भी शर्म नहीं है कि उसने अकेले तुम सभी को अपने प्यार से बाँध रखा था !
पर तुम 6 लोगों ने अपने एक बाप को ही किस्तों में बाँट लिया...
चलो कोई बात नहीं... कम से कम दो वक़्त की रोटी तो शांति से दे सकते पर तुम सबसे वो भी नहीं हो पाया !
पार्लर और किट्टी पार्टी में जाने के लिए सभी के पास वक़्त था पर मेरी दो रोटियाँ सब को भारी पड़ रही थीं !
तुम सभी को अच्छी तरह से मालूम था कि जिसके पास भी मैं रहता था, अपनी पेंशन वहीं खर्च करता था, लेकिन मेरी दवाई के लिए किसी के पास पैसे नहीं होते थे !
तुम सबको अपने अधिकार तो याद रहे, मगर अपने बूढ़े पिता के प्रति, तुम्हारे कुछ कर्त्तव्य भी हैं, यह तुम में से किसी को भी याद नहीं रहा !
और फिर जब मेरे बेटे ही ऐसे हैं तो बहुओं से मैं क्या उम्मीद रखूँ ?
कहते-कहते जगदीश प्रसादजी का गला रुँध गया !
तीनों बेटे-बहुएँ चुपचाप नज़रें झुकाकर बैठे रहे !
जगदीश प्रसादजी ने दोबारा बोलना शुरू किया- "मेरा ये फैसला तुम्हें पसंद नहीं आएगा, यह मैं जानता हूँ, पर इसके जिम्मेदार भी तुम लोग ही हो ! तुम्हें पता चल गया होगा कि मैंने मकान बेच दिया है !
10-10 लाख मैंने अपने पोते-पोतियों के नाम से फिक्स्ड डिपोसिट करा दिए हैं, जो उनके बड़े होने पर उन्हें ही मिलेंगे !
मैंने यह घर खरीद लिया है। दो कमरे, किचेन, बाथरूम, टॉयलेट सभी सुविधाएँ हैं ! उसमें जो कमी थी वो मैंने जुटा ली हैं। मैंने इसके लिए एक आश्रम को 15 लाख रुपये दे दिए हैं।
मेरे मरने के बाद यह घर आश्रम की सम्पति हो जाएगा !
अभी-अभी जिस लड़के को तुमने देखा है वो एक अनाथ लड़का है जो उस आश्रम में रहता था ! और अब वह मेरे साथ रहता है !
मैंने एक अच्छे स्कूल में उसका नाम लिखवा दिया है। वह पढ़ता भी है और मेरी सेवा भी करता है !
5 लाख रुपये मैंने इसके नाम से भी जमा करा दिए हैं !
बाकी जो बचा, उसे मैंने बैंक में जमा करा दिए हैं !
बैंक से जो ब्याज़ आएगा व साथ ही मेरी जो पेंशन आती है,
उससे, मेरा और इस बच्चे का खर्च आराम से चल जाएगा !
अब तुम लोगों को मेरी तरफ से पूरी आज़ादी है जैसे चाहो वैसे रहो!
ये सब कहकर जगदीश प्रसादजी चुप हो गए, और आरामकुर्सी पर बैठकर अपनी आँखें बंद कर लीं !
तीनों बेटे-बहुओं को समझ नहीं आ रहा था कि पिताजी की इन बातों पर वे अपनी क्या प्रतिक्रिया प्रकट करें?
और सामने पड़ी हलवे की प्लेट को देखकर अलका बहू सोच रही थी कि- एक प्लेट हलवे की कितनी बड़ी कीमत सबको चुकानी पड़ गयी है...
वाह ! जगदीश प्रसाद जी ने - 'सौ सुनार की, एक लुहार की' कहावत को चरितार्थ कर दिया,
जवाब देंहटाएंयही ईलाज है |
जवाब देंहटाएंसटीक उपाय
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
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