शुक्रवार, 22 जनवरी 2021
आतंकी ...जितेन्द्र कुमार गुप्ता
गुरुवार, 21 जनवरी 2021
फ्राड
हालांकि इस बीच वह चाय पी चुके थे।
अच्छी चाय पिलाने के लिए श्रीमती जी की तारीफ भी की....।
बुधवार, 20 जनवरी 2021
वास्तव मे माता ही है गाय...चेतन ठकरार
पॉलीथिन चबूतरे पर उंडेल दी,उसमे गुड़ भरा हुआ था,अब उन्होने आओ आओ करके पास ने ही खड़ी बैठी गायो को बुलाया,सभी गाय पलक झपकते ही उन बुजुर्ग के इर्द गिर्द ठीक ऐसे ही आ गई जैसे कई महीनो बाद बच्चे अपने बाप को घेर लेते हैं.
कुछ को उठाकर खिला रहे थे तो कुछ स्वयम् खा रही थी,वे बड़े प्रेम से उनके सिर पर हाथ फेर रहे थे।कुछ ही देर में गाय अधिकांश गुड़ खाकर चली गई,इसके बाद जो हुआ वो वो वाक्या हैं जिसे मैं ज़िन्दगी भर नहीं भुला सकता.
हुआ यूँ की गायो के खाने के बाद जो गुड़ बच गया था वो बुजुर्ग उन टुकड़ो को उठा उठा कर खाने लगे,मैं उनकी इस क्रिया से अचंभित हुआ पर उन्होंने बिना किसी परवाह के कई टुकड़े खाये और अपनी गाडी की और चल पड़े।
मैं दौड़कर उनके नज़दीक पहुँचा और बोला "अंकल जी क्षमा चाहता हूँ पर अभी जो हुआ उससे मेरा दिमाग घूम गया क्या आप मेरी जिज्ञाषा शांत करेंगे की आप इतने अमीर होकर भी गाय का झूँठा गुड क्यों खाया ??"
उनके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान उभरी उन्होंने खिड़की वापस बंद की और मेरे कंधे पर हाथ रख वापस सीमेंट के चबूतरे पर आ बैठे,और बोले "ये जो तुम गुड़ के झूँठे टुकड़े देख रहे हो ना बेटे मुझे इनसे स्वादिष्ट आज तक कुछ नहीं लगता।जब भी मुझे वक़्त मिलता हैं मैं अक्सर इसी जगह आकर अपनी आत्मा में इस गुड की मिठास घोलता हूँ।"
"मैं अब भी नहीं समझा अंकल जी आखिर ऐसा क्या हैं इस गुड में ???"
वे बोले "ये बात आज से कोई 40 साल पहले की हैं उस वक़्त मैं 22 साल का था घर में जबरदस्त आंतरिक कलह के कारण मैं घर से भाग आया था,परन्तू दुर्भाग्य वश ट्रेन में कोई मेरा सारा सामान और पैसे चुरा ले गया।
इस अजनबी शहर में मेरा कोई नहीं था,भीषण गर्मी में खाली जेब के दो दिन भूखे रहकर इधर से उधर भटकता रहा,और शाम को जब भूख मुझे निगलने को आतुर थी तब इसी जगह ऐसी ही एक गाय को एक महानुभाव गुड़ डालकर गया,यहाँ एक पीपल का पेड़ हुआ करता था तब चबूतरा नहीं था, मैं उसी पेड़ की जड़ो पर बैठा भूख से बेहाल हो रहा था, मैंने देखा की गाय की गाय ने गुड़ छुआ तक नहीं और उठ कर चली गई, मैं कुछ देर किंकर्तव्यविमूढ़सोचता रहा और फिर मैंने वो सारा गुड़ उठा लिया और खा लिया।मेरी मृतप्रायः आत्मा में प्राण आ गये।
मैं उसी पेड़ की जड़ो में रात भर पड़ा रहा, सुबह जब मेरी आँख खुली तो काफ़ी रौशनी हो चुकी थी, मैं नित्यकर्मो से फारिक हो किसी काम की तलास में फिर सारा दिन भटकता रहा पर दुर्भाग्य मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा था, एक और थकान भरे दिन ने मुझे वापस उसी जगह निराश भूखा खाली हाथ लौटा दिया।
शाम ढल रही थी, कल और आज में कुछ भी तो नहीं बदला था, वही पीपल,वही भूखा मैं और वही गाय।कुछ ही देर में वहाँ वही कल वाले सज्जन आये और कुछेक गुड़ की डलिया गाय को डालकर चलते बने,गाय उठी और बिना गुड़ खाये चली गई, मुझे अज़ीब लगा परन्तू मैं बेबस था सो आज फिर गुड खा लिया मैंने और वही सो गया,सुबह काम तलासने निकल गया,आज शायद दुर्भाग्य की चादर मेरे सर पे नहीं थी सो एक ढ़ाबे पे पर मुझे झूँठे बर्तन धोने का काम मिल गया।
कुछ दिन बाद जब मालिक ने मुझे पहली पगार दी तो मैंने 1 किलो गुड़ख़रीदा और किसी दिव्य शक्ति के वशीभूत 7 km पैदल चलकर उसी पीपल के पेड़ के नीचे आया नज़र दौड़ाई तो गाय भी दिख गई,मैंने सारा गुड़ उस गाय को डाल दिया,इस बार मैं अपने जीवन में सबसे ज्यादा चौंका क्योकि गाय सारा गुड़ खा गई।
जिसका मतलब साफ़ था की गाय ने 2 दिन जानबूझ कर मेरे लिये गुड़ छोड़ा था, मेरा हृदय भर उठा उस ममतामई स्वरुप की ममता देखकर, मैं रोता हुआ ढ़ाबे पे पहुँचा और बहुत सोचता रहा। फिर एक दिन मुझे एक फर्म में नौकरी मिल गई, दिन बे दिन मैं उन्नति और तरक्की के शिखर चढ़ता गया, शादी हुई बच्चे हुये आज मैं खुद की फर्म का मालिक हूँ, जीवन की इस लंबी यात्रा में मैंने कभी भी उस गाय माता को नहीं भुलाया...।
मैं अक्सर यहाँ आता हूँ और इन गायो को गुड़ डालकर इनका झूँठा गुड़ खाता हूँ, मैं लाखो रूपए गौ शालाओं में चंदा देता हूँ, परन्तू मेरी मृग तृष्णा यही आकर मिटती हैं बेटे।"
मैं देख रहा था वे बहुत भावुक हो चले थे, "समझ गये अब तो तुम", मैंने सिर हाँ में हिलाया, वे चल पड़े, गाडी स्टार्ट हुई और निकल गई।
मैं उठा उन्ही टुकड़ो में से एक टुकड़ा उठाया मुँह में डाला सचमुच वो कोई साधारण गुड़ नहीं था उसमे कोई दिव्य मिठास थी जो जीभ के साथ आत्मा को भी मीठा कर गई।
मंगलवार, 19 जनवरी 2021
टॉप स्टोरी ....पक्षियों सी बोली, घोंसलों से घर
अफ्रीकी देश तंजानिया अनोखी आदिम जनजातियों की मातृभूमि रही है और उन्हीं में से एक है पाषाण कालीन शिकारी जनजाति- हडजा।
कालीन परिस्थितियों में ही अपने आप को समेटे हुए निवास कर रहे हैं। पुरातत्वविदों का मानना है कि हडजा लोग पाषाण युग के समय से ही अपने उसी परिवेश में आज तक रह रहे हैं और वैसा ही व्यवहार भी कर रहे हैं। यहां तक कि ये लोग एक-दूसरे से बातचीत के लिए किसी भाषा का नहीं बल्कि मुंह में अपनी जीभ से स्मैकिंग या पॉपिंग जैसी ध्वनि के जरिए सिटी जैसी आवाज निकालते हैं। होठों से निकली इसी तरह की आवाज के जरिए ये अपने समुदाय के सदस्यो से संवाद स्थापित करते हैं। ये लोग न तो बोलना जानते हैं, न पढ़ना-लिखना। मुंह से निकली सीटी जैसी आवाज की विविधता से ही ये लोग अपने मनोभावों को एक-दूसरे को जाहिर करते हैं।
ऐसे ही चली आ रही परंपरा.....
भाषा के अभाव में हडजा लोगों का कोई लिखित इतिहास मौजूद नहीं है। वे एक पीढ़ी से अपनी दूसरी पीढ़ी तक अपने इतिहास को अपनी खुद की सीटी बजाने वाली भाषा 'क्लिकिंग' के जरिए ही पहुंचाते हैं। क्लिकिंग भाषा दुनिया की सबसे पुरानी भाषाओं में से एक है जो सिर्फ इस समुदाय में सीमित है। हडजा लोग ना किसी कैलेंडर का उपयोग करते हैं और ना ही किसी घड़ी का। ये लोग आज भी सूर्य और चन्द्रमा की गतिविधियों से अपने समय का निर्धारण करते हैं।
हडजा 10 हजार साल पुरानी सभ्यता के साथ ही जी रहे हैं। ये धनुष और तीर से बंदर, लंगूर, पक्षी, हिरण, मृग और भैंसों का शिकार करते हैं और समूह में रहते हैं। हडजा धरती पर सबसे ज्यादा समय तक शिकार पर जीवित रहने वाली बची हुई जनजातियों में से एक है। हडजा लोगों के हर दिन के पांच घंटे शिकार में ही बीतते हैं। इसके बाद समुदाय के वयस्क पुरुष नशे में अपना समय व्यतीत करते हैं। हडजा जनजाति के लोग अपने पछियों के घोंसले जैसे झोपड़े में नौ-दस घंटे तक एक ही मुद्रा में आराम करते हैं।
कच्चा मांस खाता है ये शिकारी समुदाय
पिछले हजारों सालों में उनके जीवन के तरीके में कोई भी बदलाव नहीं आया है। वे अपने दिन की शुरुआत शिकार करने से शुरू करते हैं और शिकार के लिए एक जगह पर कुछ हफ्तों के लिए अपना शिविर बनाते हैं और फिर आगे बढ़ जाते हैं। हडजा लोग 5 या 6 साल पहले तक कच्चा मांस ही खाया करते थे। हालांकि, अब जाकर ये लोग एक या दो मिनट के लिए मांस को आग में भूनने लगे हैं। हडजा जनजाति के पुरुष शिकारी होते हैं। वे एडेनियम नामक झाड़ी के पत्तों से जहर प्राप्त करते है और उस जहर को अपने तीर और धनुष में लगाकर जानवरों का शिकार करते हैं जबकि हडजा महिलाएं और बच्चे जामुन, बाओबाब फल, कन्द , मूल जैसे खाद्य पदार्थो को इकट्ठा करती हैं।शादी का बंधन नहीं ...
हडजा जनजाति के भीतर कोई नेता नहीं होता है। यहां सभी लोग समान होते हैं, न कि बड़े-छोटे। ये खानाबदोश लोग भोजन और पानी की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान तक पैदल चलते रहते हैं। हडजा लोगो में शादी नाम की कोई प्रथा या परंपरा नहीं होती है, ये एक उन्मुक्त समाज है। ये रात में आग जलाकर कैंप फायर बनाते हैं और आग के चारों तरफ समुदाय की सभी औरतें और पुरुष सदस्य एक-दूसरे के आसपास बैठते हैं। वे एक-दूसरे को अपनी 'क्लिकिंग' भाषा में कहानी सुनाते हैं और बातचीत और नाच-गाना करते हैं।
मध्य रात्रि को जब ये कार्यक्रम खत्म हो जाता है, तो उसके बाद ये लोग उसी आग के चारों तरफ युगल जोड़े में सोते हैं और एक-दूसरे के साथ शारीरिक संबंध बनाते हैं। अगर किसी किसी जोड़े का संबंध लंबे समय के लिए हो जाता है तो वे अपनी इच्छा से पति-पत्नी के रूप में रहते हैं, लेकिन इसे किसी शादी नाम की परंपरा से नहीं जोड़ा जाता। इस समाज में चाहे पुरुष हो या कि औरत ये सभी अपनी अपनी पसंद से अपनी जोड़ियां हमेशा बदलते रहते हैं और हर रात आग के चारों तरफ बदल-बदल कर एक-दूसरे के साथ शारीरिक संबंध बनाते हैं।
पूर्णिमा पर होता है खास उत्सव....
हडजा जनजाति में पूर्णिमा की रात का बहुत धार्मिक महत्व होता है। पूर्णिमा की रात्रि को हडजा लोग एक विशेष धार्मिक आयोजन करते है जिसे 'एपेम' कहते हैं। इस आयोजन के दौरान पुरुष अपने पूर्वजों की तरह कपड़े पहनते हैं और अपने समुदाय कि महिलाओं और बच्चों के लिए नृत्य करते हैं। इसी एपेम कि धार्मिक प्रदर्शनी के दौरान इस समुदाय कि वे लड़कियां जिन्हें पहली बार महावारी हुई होती है, वे इस समुदाय के उस लड़के के साथ शारीरिक संबंध बनाती हैं जिसने पहले किसी औरत के साथ शारीरिक संबंध नहीं बनाया हो। इस समारोह में जंगली जानवरों का शिकार करने वाले पुरुषों को सम्मानित भी करते हैं। उन्हें अपनी पसंद की महिला से शारीरिक संबंध बनाने की आजादी भी होती है।
साभार....
https://navbharattimes.indiatimes.com/world/other-countries/all-you-need-to-know-about-hadza-tribe-of-africa-which-talks-in-whistling-and-lives-in-nest-like-houses/articleshow/80315866.cms?story=5