रविवार, 29 अप्रैल 2018

मेरे पापा की 'औकात' ...प्रस्तुतिः मनोहर वासवानी


पाँच दिन की छुट्टियाँ बिता कर जब ससुराल पहुँची तो पति घर के सामने स्वागत में खड़े थे। अंदर प्रवेश किया तो छोटे से गैराज में चमचमाती गाड़ी खड़ी थी स्विफ्ट डिजायर!

मैंने आँखों ही आँखों से पति से प्रश्न किया तो उन्होंने गाड़ी की चाबियाँ थमाकर कहा: "कल से तुम इस गाड़ी में कॉलेज जाओगी प्रोफेसर साहिबा!"

"ओह माय गॉड!!'' 

ख़ुशी इतनी थी कि मुँह से और कुछ निकला ही नही। बस जोश और भावावेश में मैंने तहसीलदार साहब को एक जोरदार झप्पी देदी और अमरबेल की तरह उनसे लिपट गई। उनका गिफ्ट देने का तरीका भी अजीब हुआ करता है। 

सब कुछ चुपचाप और अचानक!! 

खुद के पास पुरानी इंडिगो है और मेरे लिए और भी महंगी खरीद लाए। 

6 साल की शादीशुदा जिंदगी में इस आदमी ने न जाने कितने गिफ्ट दिए। गिनती करती हूँ तो थक जाती हूँ। ईमानदार है रिश्वत नही लेते । मग़र खर्चीले इतने कि उधार के पैसे लाकर गिफ्ट खरीद लाते है।

लम्बी सी झप्पी के बाद मैं अलग हुई तो गाड़ी का निरक्षण करने लगी। मेरा फसन्दीदा कलर था। बहुत सुंदर थी। 

फिर नजर उस जगह गई जहाँ मेरी स्कूटी खड़ी रहती थी। हठात! वो जगह तो खाली थी। 

"स्कूटी कहाँ है?" मैंने चिल्लाकर पूछा।

"बेच दी मैंने, क्या करना अब उस जुगाड़ का? पार्किंग में इतनी जगह भी नही है।"

"मुझ से बिना पूछे बेच दी तुमने??" 

"एक स्कूटी ही तो थी; पुरानी सी। गुस्सा क्यूँ होती हो?"

उसने भावहीन स्वर में कहा तो मैं चिल्ला पड़ी:-"स्कूटी नही थी वो। 

मेरी जिंदगी थी। मेरी धड़कनें बसती थी उसमें। मेरे पापा की इकलौती निशानी थी मेरे पास।

 मैं तुम्हारे तोहफे का सम्मान करती हूँ मगर उस स्कूटी के बिना पे नही। मुझे नही चाहिए तुम्हारी गाड़ी। तुमने मेरी सबसे प्यारी चीज बेच दी। वो भी मुझसे बिना पूछे।'" 

मैं रो पड़ी।
शोर सुनकर मेरी सास बाहर निकल आई। 

उसने मेरे सर पर हाथ फेरा तो मेरी रुलाई और फुट पड़ी।

 "रो मत बेटा, मैंने तो इससे पहले ही कहा था।

 एक बार बहू से पूछ ले। मग़र बेटा बड़ा हो गया है।

 तहसीलदार!! माँ की बात कहाँ सुनेगा? 

मग़र तू रो मत। 

और तू खड़ा-खड़ा अब क्या देख रहा है वापस ला स्कूटी को।"
तहसीलदार साहब गर्दन झुकाकर आए मेरे पास।

रोते हुए नही देखा था मुझे पहले कभी। प्यार जो बेइन्तहा करते हैं। 

याचना भरे स्वर में बोले: सॉरी यार! मुझे क्या पता था वो स्कूटी तेरे दिल के इतनी करीब है। मैंने तो कबाड़ी को बेचा है सिर्फ सात हजार में। वो मामूली पैसे भी मेरे किस काम के थे? यूँ ही बेच दिया कि गाड़ी मिलने के बाद उसका क्या करोगी? तुम्हे ख़ुशी देनी चाही थी आँसू नही। अभी जाकर लाता हूँ। "
फिर वो चले गए।

मैं अपने कमरे में आकर बैठ गई। जड़वत सी। पति का भी क्या दोष था। 

हाँ एक दो बार उन्होंने कहा था कि ऐसे बेच कर नई ले ले।

 मैंने भी हँस कर कह दिया था कि नही यही ठीक है। 
लेकिन अचानक स्कूटी न देखकर मैं बहुत ज्यादा भावुक हो गई थी। होती भी कैसे नही। 

वो स्कूटी नही "औकात" थी मेरे पापा की। 

जब मैं कॉलेज में थी तब मेरे साथ में पढ़ने वाली एक लड़की नई स्कूटी लेकर कॉलेज आई थी। सभी सहेलियाँ उसे बधाई दे रही थी। 
तब मैंने उससे पूछ लिया:- "कितने की है?
उसने तपाक से जो उत्तर दिया उसने मेरी जान ही निकाल ली थी:
" कितने की भी हो? तेरी और तेरे पापा की औकात से बाहर की है।"

अचानक पैरों में जान नही रही थी। सब लड़कियाँ वहाँ से चली गई थी। मगर मैं वही बैठी रह गई। किसी ने मेरे हृदय का दर्द नही देखा था। मुझे कभी यह अहसास ही नही हुआ था कि वे सब मुझे अपने से अलग "गरीब" समझती थी। मगर उस दिन लगा कि मैं उनमे से नही हूँ। 
घर आई तब भी अपनी उदासी छुपा नही पाई। माँ से लिपट कर रो पड़ी थी। माँ को बताया तो माँ ने बस इतना ही कहा" छिछोरी लड़कियों पर ज्यादा ध्यान मत दे! पढ़ाई पर ध्यान दे!"
रात को पापा घर आए तब उनसे भी मैंने पूछ लिया: "पापा हम गरीब हैं क्या?"
तब पापा ने सर पे हाथ फिराते हुए कहा था"- हम गरीब नही हैं बिटिया, बस जरा सा हमारा वक़्त गरीब चल रहा है।"
फिर अगले दिन भी मैं कॉलेज नही गई। न जाने क्यों दिल नही था। शाम को पापा जल्दी ही घर आ गए थे। और जो लाए थे वो उतनी बड़ी खुशी थी मेरे लिए कि शब्दों में बयाँ नही कर सकती। एक प्यारी सी स्कूटी। तितली सी। सोन चिड़िया सी। नही, एक सफेद परी सी थी वो। मेरे सपनों की उड़ान। मेरी जान थी वो। सच कहूँ तो उस रात मुझे नींद नही आई थी। मैंने पापा को कितनी बार थैंक्यू बोला याद नही है। स्कूटी कहाँ से आई ? पैसे कहाँ से आए ये भी नही सोच सकी ज्यादा ख़ुशी में। फिर दो दिन मेरा प्रशिक्षण चला। साईकिल चलानी तो आती थी। स्कूटी भी चलानी सीख गई। 
पाँच दिन बाद कॉलेज पहुँची। अपने पापा की "औकात" के साथ। एक राजकुमारी की तरह। जैसे अभी स्वर्णजड़ित रथ से उतरी हो। सच पूछो तो मेरी जिंदगी में वो दिन ख़ुशी का सबसे बड़ा दिन था। मेरे पापा मुझे कितना चाहते हैं सबको पता चल गया। 
मग़र कुछ दिनों बाद एक सहेली ने बताया कि वो पापा के साईकिल रिक्शा पर बैठी थी। तब मैंने कहा नही यार तुम किसी और के साईकिल रिक्शा पर बैठी हो। मेरे पापा का अपना टेम्पो है।
मग़र अंदर ही अंदर मेरा दिमाग झनझना उठा था। क्या पापा ने मेरी स्कूटी के लिए टेम्पो बेच दिया था। और छः महीने से ऊपर हो गए। मुझे पता भी नही लगने दिया। 
शाम को पापा घर आए तो मैंने उन्हें गोर से देखा। आज इतने दिनों बाद फुर्सत से देखा तो जान पाई कि दुबले पतले हो गए है। वरना घ्यान से देखने का वक़्त ही नही मिलता था। रात को आते थे और सुबह अँधेरे ही चले जाते थे। टेम्पो भी दूर किसी दोस्त के घर खड़ा करके आते थे।
कैसे पता चलता बेच दिया है। 
मैं दौड़ कर उनसे लिपट गई!: "पापा आपने ऐसा क्यूँ किया?" बस इतना ही मुख से निकला। रोना जो आ गया था।
" तू मेरा ग़ुरूर है बिटिया, तेरी आँख में आँसू देखूँ तो मैं कैसा बाप? चिंता ना कर बेचा नही है। गिरवी रखा था। इसी महीने छुड़ा लूँगा।"
"आप दुनिया के बेस्ट पापा हो। बेस्ट से भी बेस्ट।इसे सिद्ध करना जरूरी कहाँ था ? मैंने स्कूटी मांगी कब थी? क्यूँ किया आपने ऐसा? 
छः महीने से पैरों से सवारियां ढोई आपने। ओह पापा आपने कितनी तक़लीफ़ झेली मेरे लिए ? मैं पागल कुछ समझ ही नही पाई ।" और मैं दहाड़े मार कर रोने लगी। फिर हम सब रोने लगे। मेरे दोनों छोटे भाई। मेरी मम्मी भी। पता नही कब तक रोते रहे ।
वो स्कूटी नही थी मेरे लिए। मेरे पापा के खून से सींचा हुआ उड़नखटोला था मेरा। और उसे किसी कबाड़ी को बेच दिया। दुःख तो होगा ही।
अचानक मेरी तन्द्रा टूटी। एक जानी-पहचानी सी आवाज कानों में पड़ी। फट-फट-फट,, मेरा उड़नखटोला मेरे पति देव यानी तहसीलदार साहब चलाकर ला रहे थे। और चलाते हुए एकदम बुद्दू लग रहे थे। मगर प्यारे से बुद्दू। मुझे बेइन्तहा चाहने वाले राजकुमार बुद्दू...


सोमवार, 16 अप्रैल 2018

शैतान क्या हैं...?...बोधकथा


एक प्रोफेसर ने अपने छात्र से पूछा....
क्या वह भगवान था जिसने इस संसार की हर वस्तु को बनाया...?
छात्र का जवाब : हां
उन्होंने फिर पूछा : शैतान क्या हैं...?
क्या भगवान ने इसे भी बनाया ?
छात्र चुप हो गया.......!
फिर छात्र ने आग्रह किया कि-क्या वह उनसे कुछ
सवाल पूछ सकता हैं...?
प्रोफेसर ने इजाजत दे दी... 
छात्र ने पूछा - क्या ठण्ड होती हैं..?
प्रोफेसर ने कहा : हां बिल्कुल क्या तुम्हे यह महसूस नहीं होती....?
छात्र ने कहा : मैं माफी चाहता हूँ सर लेकिन आप गलत हो ।
गर्मी का पूर्ण रुप से लुप्त होना ही ठण्ड कहलाता
हैं, जबकि इसका अस्तित्व नहीं होता। ठण्ड होती ही नहीं..?
छात्र ने फिर पूछा : क्या अन्धकार होता हैं...?
प्रोफेसर ने कहा:- हां, होता हैं....
छात्र ने कहा : आप फिर गलत हैं सर।
अन्धकार जैसी कोई चीज नहीं होती वास्तव में इसका कारण रोशनी का पूर्ण रुप से लुप्त होना हैं सर हमने हमेशा गर्मी और रोशनी के बारे में पढा और सुना हैं।
ठण्ड और अन्धकार के बारे में नहीं । वैसे ही भगवान हैं....
और....
बस इसी तरह शैतान भी नहीं होता l वास्तव में पूर्ण रुप से भगवान में विश्वास सत्य और आस्था का ना होना ही शैतान का होना हैं।
और वह छात्र था ...... स्वामी विवेकानन्द 

प्रस्तुति : अनु कश्यप

गुरुवार, 12 अप्रैल 2018

शेर के बाल से पति का इलाज...हिन्दी एरा

    
        एक बार एक भीषण युद्ध हुआ। युद्ध समाप्त होने के बाद उसकी भयावहता की यादें अपने साथ लिए सभी जिन्दा बच गए लोग अपने अपने घर लौट गए। इस युद्ध से लौटने के बाद लक्ष्मी का पति बिलकुल बदल गया था। युद्ध की भयावहता ने उसके दिलो-दिमाग पर बहुत गहरा असर किया और उसके मिजाज़ को बहुत बदल दिया था। अब वह हमेशा गुमसुम रहता और बात-बात पर गुस्सा करने लगता। उसका स्वभाव ऐसा हो गया था कि लक्ष्मी को उससे डर लगने लगा था।

पति की ऐसी हालात देखकर उसे पति के स्वास्थ्य की चिंता होने लगी। किसी ने उसे एक अच्छे वैद्य के बारे में बताया और उसके पति का इलाज उनके पास कराने के लिए समझाया। अपने पति का इलाज कराने के लिए लक्ष्मी उस वैद्य के पास गयी। वह वैद्य अपनी झोपडी में बैठा अपनी कुछ दवाइयाँ तैयार कर रहा था। लक्ष्मी ने उस वैद्य को अपने पति के व्यव्हार में युद्ध के बाद आये परिवर्तन की समस्या को सिलसिलेवार बता दी। लक्ष्मी ने वैद्य से गुजारिश की कि वो उसके पति का ऐसा इलाज कर दे जिससे जिससे उसका पति पहले की तरह ही प्रेमपूर्वक व्यव्हार करने लगे। उस वैद्य ने लक्ष्मी की समस्या सुन उसे तीन दिन बाद आने को कहा।

तीन दिन बाद जब लक्ष्मी उस वैद्य के पास पहुंची तो वैद्य ने कहा कि तुम्हारे पति की बीमारी बहुत ही भयंकर है और उसे ठीक करने के लिए एक खास प्रकार की दवा तैयार करनी होगी। वैद्य ने आगे कहा कि मुझे ये दवा तैयार करने के लिए जिन्दा शेर का एक बाल चाहिए। अगर तुम अपने पति को ठीक करके फिर से पहले जैसा करना चाहती हो तो तुम्हे कहीं से भी मुझे जिंदा शेर का एक बाल लाकर देना होगा तभी मैं ये खास दवा तैयार कर पाउँगा, जिसे खाते ही तुम्हारा पति बिलकुल पहले जैसा हो जायेगा।

लक्ष्मी तो जिंदा शेर के बाल की बात सुनकर ही सहम गयी और उसने वैद्य से जिंदा शेर का बाल लेकर आने में असमर्थता जता दी। उसने वैद्य से कहा वैद्यमहाराज, आप ही सोचें मैं कैसे एक जिंदा शेर का बाल लेकर आ पाऊँगी। आप कृपया करके मेरे पति के लिए कोई दूसरा इलाज बताएं। वैद्य ने भी लक्ष्मी से कह दिया तुम्हारे पति का इलाज सिर्फ जिंदा शेर के बाल से बनी खास दवा से ही किया जा सकता है। इसके अलावा इस बीमारी को कोई इलाज नहीं है। अगर तुम शेर का बाल नहीं ला सकती तो तुम्हारा पति जैसा भी है तुम उसके साथ उसी हाल में रहो और उसके इलाज की बात भूल जाओ। वैद्य के मुँह से ऐसी बात सुनकर लक्ष्मी परेशान हो गयी। लेकिन कोई और चारा ना देख आखिरकार वो जिंदा शेर का बाल लाने को तैयार हो गयी।

वो घर चली गयी और शेर का बाल लाने को लेकर अपने आप को हिम्मत बंधाती रही। अगले दिन वह हिम्मत करके एक कटोरी में मांस लेकर पास के एक जंगल की तरफ चली गयी। वहाँ जंगल में उसे एक गुफा नज़र आई, जहाँ से उसे शेर की गुर्राहट सुनाई दी। उसे लगा जरूर इस गुफा में कोई शेर रहता होगा। पर वो वहां मांस रखने की हिम्मत नहीं कर पाई और ऐसे ही वहां से वापस घर चली गयी। घर आकर उसे लगा ऐसे तो वो कभी भी शेर का बाल लेकर नहीं आ पायेगी और उसके पति का इलाज नहीं हो पायेगा। वो पूरी रात इसी के बारे में सोच सोच कर परेशान होती रही।

अगले दिन फिर से उसने हिम्मत की और एक कटोरी में मांस लेकर जंगल की तरफ रवाना हो गयी। जंगल में पहुंचकर हिम्मत करके वह चुपचाप दबे पांव गुफा के पास गयी और गुफा के सामने कटोरी रखकर तुरंत ही वहां से वापस घर आ गयी।  अगले दिन फिर से उसने ऐसा ही किया, धीरे-धीरे यही उसका नियम बन गया। वह हर रोज जंगल जाती, गुफा के पास पहुँचती, एक दिन पुरानी कटोरी उठाती और मांस से भरी नई कटोरी रखकर दबे पांव वहां से निकलकर वापस अपने घर लौट आती। ऐसा करते उसे कई दिन हो गए लेकिन अभी तक उसका शेर से कभी सामना नहीं हुआ था।

धीरे – धीरे लक्ष्मी का डर कम होने लगा। अब वो बहुत इत्मिनान से जंगल जाती और मांस की कटोरी गुफा के बाहर रखकर आ जाती। कुछ दिनों तक ऐसा ही करते रहने के बाद एक दिन उसने देखा कि शेर गुफा में बाहर की तरफ ही बैठा है। लक्ष्मी हिम्मत करके धीरे-धीरे गुफा की तरफ बढ़नी लगी। शेर ने उससे कुछ नहीं कहा। लक्ष्मी ने मांस से भरी कटोरी वहां रखी और खाली कटोरी लेकर वहां से रवाना हो गयी। इसी प्रकार कई और दिन बीत गए। लक्ष्मी के प्रति शेर का स्वभाव दोस्ताना हो गया, वो कभी भी उसके आने पर आक्रामक नहीं होता। शेर के इस दोस्ताना व्यवहार के चलते अब लक्ष्मी कभी-कभी उसे सहला भी देती थी।लक्ष्मी को शेर के पास आते जाते करीब छह महीने बीत गए तब उसे लगा कि अब वह शेर के बाल काट सकती है। अगले दिन वह अपने साथ एक छोटा चाकू छुपाकर ले गई और शेर को सहलाते-पुचकारते हुए लक्ष्मी ने उसके कुछ बाल काट लिए।

शेर का बाल मिलते ही लक्ष्मी तुरंत वैद्य के पास पहुँच गई और उसे शेर के बाल दिखाए। वैद्य ने उससे पूछा कि उसने ये शेर के बाल कैसे हासिल किये। लक्ष्मी ने वैद्य को अपने 6 महीने की पूरी कहानी सुना दी। लक्ष्मी की पूरी कहानी सुनने के बाद वैद्य ने उसी समय शेर के बाल को आग के हवाले कर दिया और लक्ष्मी को समझाते हुए कहा कि इंसान शेर से ज्यादा खतरनाक नहीं हो सकता। यदि वह प्यार और धैर्य से शेर को अपने वश में कर सकती है तो पति को क्यों नहीं। लक्ष्मी को अपने पति की बीमारी का इलाज मिल गया था।

दोस्तों इस कहानी का moral यही है कि प्यार ही वो अहसास है जिससे हम किसी को भी अपना बना सकते हैं।