पंक्तिबद्ध और एकजुट रहने के कारण दाँत बहुत दुस्साहसी हो गए थे।
एक दिन वे गर्व में चूर होकर जिह्वा से बोले "हम बत्तीस घनिष्ट मित्र हैं एक से एक मज़बूत। और तू ठहरी अकेली,
न चाहें तो तुझे बाहर ही न निकलने दें।"
जिह्वा ने पहली बार ऐसा कलुषित विचार सुना।
वह अब हँसकर बोली "अच्छा ऊपर से एकदम सफ़ेद और स्वच्छ हो पर मन से बड़े कपटी हो।"
"ऊपर से स्वच्छ और अन्दर से काले घोषित करने वाली जीभ वाचालता छोड़, अपनी औक़ात में रह। हम तुझे चबा सकते हैं। यह मत भूल कि तू हमारी कृपा पर ही राज कर रही है," दाँतों ने किटकिटाकर कहा।
जीभ ने नम्रता बनाये रखी किन्तु उत्तर दिया, "दूसरों को चबा जाने की ललक रखने वाले बहुत जल्दी टूटते भी हैं। सामने वाले तो और जल्दी गिर जाते हैं। तुम लोग अवसरवादी हो मनुष्य का साथ
तभी तक देते हो जब तक वह जवान रहता है।
वृद्धावस्था में उसे असहाय छोड़कर चल देते हो।"
शक्तिशाली दाँत भी अपनी हार आखिर क्यों मानने लगे?"
हमारी जड़ें बहुत गहरी हैं।
हमारे कड़े और नुकीलेपन के कारण बड़े बड़े तक हमसे थर्राते हैं।"
जिह्वा ने विवेकपूर्ण उत्तर दिया "तुम्हारे नुकीले या कड़ेपन का कार्यक्षेत्र मुँह के भीतर तक सीमित है।
मुझमें पूरी दुनिया को प्रभावित करने और झुकाने की क्षमता है।"
दाँतों ने पुनः धमकी दी,
"हम सब मिलकर तुझे घेरे खड़े हैं। कब तक हमसे बचेगी?”
जीभ ने दाँतों के घमंड को चूर करते चेतावनी दी
"डॉक्टर को बुलाऊँ?
दन्त चिकित्सक एक एक को बाहर कर देगा।
मुझे तो छुएगा भी नहीं और तुम सब बाहर दिखाई दोगे।"
संगठित और घमंडी दाँत अब निरुत्तर थे।
उन्हें कविता पंक्ति याद आ गई –
"किसी को पसंद नहीं सख़्ती बयान में,
तभी तो दी नहीं हड्डी ज़बान में।"
-हरि जोशी
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