आज बुलाया है दोस्तों ने "बैठेंगे मिल के चार यार.." स्टाईल में सोच रहे हैं, क्या-क्या करेंगे तैयारियाँ कोई बनायेगा बहानें घर में ’वर्कलोड’ के कोई देगा और कारण ओवरटाईम का लायेगा कोई ख़ास ब्रांड विलायत से गिफ़्ट आया और बड़ों का शरबत बताकर बीवी के माध्यम से बच्चों से बचाया गया किसी के खाली पड़े दफ़्तर में पहले ही पहुँच चुके होंगे दराज में काँच के गिलास इसे करना है अब बाकी का ’जुगाड़’ ऑफ़िस खतम होने के इंतज़ार में ये जिये जा रहा है बाद वाले पल शर्ट की तरह यह भी अस्त-व्यस्त हो गया है, इन दिनों कि तरह सोच रहा है, थोड़ा समय निकाल कर टी-शर्ट डाल लेता, या डिओ ही मार आता थोड़ा पर घर जा कर आने की कल्पना ही उसका उत्साह खतम करती वही बीवी, वही घर, वही बच्चें, वही माँगें, और वही ’वह’.. खुशनसीब पापा बना हुआ प्यारी सी बीवी का प्यारा सा पति.. वो हाथ से ही बाल ठीक करता है टेबल पर रखे काँच में देखकर हाथों से कमीज की सिलवटें साफ़ करता जैसे मन की ही कर रहा हो तसल्ली देता अपने आपको कि आज भी वह कॉलेज के दिन खतम करता नौजवान ही तो है तुलना करता है दोस्तों के ज़रा ज़्यादा दिखाई देते गंजेपन से अपने बढ़ते हुये माथे की कल्पना से ही नाप लेता है सब के पेट के घेरे इंचों में और फिर खुशनसीब दोस्त बना फिरने का उत्साह बटोरता है मन में एक-दूसरे को चिढ़ाने के लिये वही पुराने नाम लडकियों के दोहराता है मन में, और वही एक-दूसरे को लजाते किस्से और धीमे पड़ते ठहाके, शादी की बातें आते-आते आज का दिन तो बातों में भी दुबारा जीना नहीं चाहता कोई.. सब ठीक-ठाक कर बस निकलने को उठता है समय की इस जेल से तो फोन बज उठता है ’सुनों पप्पू के पापा... आज जल्दी घर आना होगा, माँ-बापू आये है गाँव सें अचानक..’ अचानक ही तो हमेशा उसके अरमानों पर.. सोचते सोचते झटक देता है सर कुर्सी में सुन्न सा बैठ हाथ मुँह के सामने धर; साँस छोड़कर देखता है.. नहीं छुपा सकेगा... बापू की नाक आज भी बड़ी तेज़ है! बड़े यत्न से किया आज के दिन का ’जुगाड़’ वही दराज में बंद कर देता है और खुशनसीब बापू का बेटा एक बार फिर घर की ही ओर मुड़ता है -मनीषा साधू स्रोतः साहित्य कुंज http://www.sahityakunj.net/
मां क्यों तू मुझसे रूठ गई क्यों तेरे हाथों से मेरी अंगुली छूट गई क्यों तेरी ममता पे मेरा अधिकार नहीं क्यों बेटों के जितना मुझपे तेरा प्यार नहीं पराई नहीं मैं अपना के देखो मां अंश हूं तुम्हारा गले लगा के देखो मां कैसे समझ लिया तूने तेरी किस्मत फूट गई क्यों तेरे हाथों से मेरी अंगुली छूट गई।
नैन है बेटा तो बेटी है दृष्टि निर्माण है बेटा तो बेटी है सृष्टि बेटी बिन कैसे बहू तुम लाओगी कैसे बोलो फिर वंश तुम चलाओगी क्यों बेटी की ममता-बेल तेरे हृदय में सूख गई क्यों तेरे हाथों से मेरी अंगुली छूट गई।
बेटा है भाग्य तो बेटी विधाता बेटा है उत्पत्ति तो बेटी है माता बेटा है गीत तो बेटी संगीत बल है बेटा तो बेटी है जीत बेटी के प्रेम की नैया क्यों भेदभाव में डूब गई क्यों तेरे हाथों से मेरी अंगुली छूट गई।
शब्द है बेटा तो बेटी है अर्थ जाति है बेटा तो बेटी है धर्म दीपक है बेटा तो बेटी है ज्योति हीरा है बेटा तो बेटी है मोती आज संभलने से पहले मां तेरी बेटी टूट गई क्यों तेरे हाथों से मेरी अंगुली छूट गई।
कैसे बीतेंगे आने वाले पाँच बरस, यह तय करेगा आपका एक वोट, फिर ना कोई सोए भूखा, ....... कि लोकतंत्र के डंके पे, मारो ऐसी चोट ।
अब ना हो ऐसे चीर हरण, ना शीश कटें जवानों के, हर खेत में लहके धानी चुनर, ना लटके धड़ किसानों के । ....... कि लोकतंत्र के डंके पे, मारो ऐसी चोट ।
अब ना कोई लूट सके, इस धरा के खजानों को, अब ना कोई बाँट सके, भजनों को अजानों को। ........ कि लोकतंत्र के डंके पे, मारो ऐसी चोट ।
निश्चल, निर्भय, शिक्षण हो, हर बेटी बेटे का अधिकार, कोई ना छीने अपने हक़, कांपे थर-थर भ्रष्टाचार । ........ कि लोकतंत्र के डंके पे, मारो ऐसी चोट ।
हो अश्वमेध फिर विश्व पटल पर, भारत के अरमानों का, मिटे जाल सूद, ऋणों का, डरने और धमकाने का, ....... कि लोकतंत्र के डंके पे, मारो ऐसी चोट ।
देख संभलकर चलना रे, ओ लोकतंत्र की सेना रे, पग-पग बैठे लूटने वाले, बनकर तोता मैना रे, ...... कि लोकतंत्र के डंके पे, मारो ऐसी चोट ।
ना हो बेकार, तेरी मोहर, तू दिखला दे ऐसा जौहर, बन पारखी चुन ऐसा राजा रे, हो न्याय, खुशियों के नौबत बाजा रे, ........ कि लोकतंत्र के डंके पे, मारो ऐसी चोट ।