गीतिका छन्द (एक बंद ब्लॉग से)
ऐ बसन्ती पात पीले, हाथ पीले मैं चली,
बिछ गई रौनक सजीली, है छबीली हर कली ।
आम पर नव बौर आई, ठौर पाई रीत की,
रात कोयल गुनगुनाई, राग डोली प्रीत की ।
आ गए राजा बसन्ती, क्या छटा रस रूप की
मैं निराली संग हो ली, चिर सुहागिन भूप की ।
नाम मेरा सरस सरसों, बरस बीते मैं खिली,
देख निज राजा बसन्ती, पुलकती फूली फली ।
अब हवा में छैल भरती, गैल भरती नेह की,
ज्यों बढ़ाती धूप नन्दा, नव सुगन्धा देह की ।
रात भर चलती बयारें, टोह मारे बाज सी,
प्राण सेतू बह्म सींचें, आँख मींचे लाज सी ।
देस धानी प्रीत घोले, मीत बोले नैन में,
तन गुजरियाँ राह चलतीं, ढार मटकी चैन में ।
त्योंरियाँ छैला गुलाबी, यों चढ़ाता मान से,
धार से काँकर बजाता, मोह लेता गान से ।
करुणा सक्सेना
मूल रचना
मूल रचना
सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ! गेय छंद बद्ध मधुर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत सृजन!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर मनभावन मोहक सृजन।
जवाब देंहटाएंक्या बात है बसन्त को ऐसे जिया है जैसे कोई रँग-बिरंगा सपना चल रहा हो आँखों के सामने। ये कविता बसन्त को जिस तरह इंसान का रूप देकर बोलती है, वो कमाल है। इस कविता में बसन्त सिर्फ मौसम नहीं है, वो प्यार है, लोक-संस्कृति है, औरतों की हँसी है, देह की खुशबू है, एक जादू है। ऐसा लगता है जैसे धरती खुद श्रृंगार कर रही हो।
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