रविवार, 17 दिसंबर 2017

आजादी.....मीना पाण्डेय

पहली रोटी मैंने अभी तवे पर डाली ही थी।

‘माँ, मैं कैसी लग रही हूँ ?‘ रोहिणी ने आते ही पूछा।  मैं कुछ कहती इससे पहले उसका फोन बजने लगा। वह जल्दी से बालकनी की तरफ चली गयी बात करने। पर आधे मिनट बाद ही लौट भी आई, थोड़े उखड़े मूड में।

‘ मां, ये आदमी भी कितना अजीब है न ? ‘

‘ कौन? ‘

‘अरे वही जो पीछे वाले फ्लैट में रहता है। ‘

‘क्यों क्या हुआ ? ‘

‘ मैं फोन पर बात कर रही थी बालकनी में,और देखो सिर्फ गंजी और चड्डे में आ कर वह अपनी बालकनी में खड़ा हो गया सामने। बदतमीज!! इतना भी नहीं पता की लड़कियों और औरतों के सामने कैसे कपड़े पहन कर आते हैं। ‘

‘ बात तो तुम्हारी सही है,उसे बाहर वालों के सामने ढंग के कपड़े पहनने चाहिए।’

‘बिलकुल, और नहीं तो क्‍या ! ‘

‘ लेकिन इसका एक और पहलू भी है। ‘

‘वो क्या माँ ? ‘

‘ उसे या किसी को भी पूरा हक़ है अपने घर में अपने तरीके से कपड़े पहनने और रहने का। और घर ही क्यों, बाहर भी। नहीं क्या ? ‘

‘हाँ माँ ,पर…..।  ‘

‘ पर क्या ? ये आजादी तो तुम भी चाहती हो न। ‘

बात तो सही थी, यह आजादी तो वह भी चाहती थी। पर क्‍या सचमुच यह आजादी का मामला है…?  रोहिणी सोच रही थी।


-मीना पाण्डेय

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