रविवार, 30 जुलाई 2017

तो क्या…?..... कुमार शर्मा ‘अनिल’


 ज़्यादा पुरानी बात नहीं है। मात्रा तीन  महीने ही गुजरे होंगे  जब उसे अचानक अपनी चालीस बरस की  उम्र में   सोलह बरस की अनन्या  से प्रेम   हो  गया था।  उसने बहुत बार  सोचा था  कि यह वाकई में   प्रेम  है   या मात्रा  शारीरिक आकर्षण अथवा  पत्नी से नीरस बन चुके    सम्बन्धों से उकता जाकर कुछ नया  तलाशने  की  पुरुष की  आदिम   प्रवृत्ति। प्रेम  और  शारीरिक   आकर्षण में    अंतर की  बहुत  ही महीन  सी रेखा  होती  है  और  इन्हें  एकदम से अलग कर नहीं देखा  जा सकता।  अनन्या उसकी बेटी  की  अभी हाल  ही में  बनी सहेली थी   और लगभग   रोज  ही शाम   को पढ़ने उसके   घर  आती   थी।

‘‘तेरे  पापा  बहुत  ही हैण्डसम  और यंग  लगते   हैं’’ -अनन्या   ने उसकी बेटी  से  कहा   तो बेटी  ने  गर्व  महसूस  करते  हुए यह जुमला परिवार  में   सभी को ‘एज़ इट इज़’ बता दिया। अगले  दिन उसने जब अनन्या को  देखा  तो  उसकी दृष्टि  बदली हुई   थी।  अब वह उसकी बेटी  की सहेली नहीं   थी ; बल्कि  सिर्फ़ ‘अनन्या’ थी।  उसे वह  खूबसूरत गुड़िया – सी लगी। सोलह बरस की  खूबसूरत  लड़कियाँ  जिनके चेहरे की मासूमियत यह चुगली  खा रही  होती है  कि उनका बचपन अभी गया नहीं  है और शरीर  की  बढ़ती मांसलता यह बता रही होती है  कि जवानी ने  अपनी दस्तक दे दी   है, लगती भी गुड़िया – सी ही हैं। वह जब भी गुड़ियाओं को  देखता    था तब भी  उसके मन में   यह सवाल हमेशा आता  था  कि बच्चों  के खेलने के लिए बनी गुडि़याएँ   अपनी शारीरिक  बनावट में   इतनी  उत्तेजक क्यों बनाई   जाती हैं।

लापरवाही से भरी और  अल्हड़ता  से छलकती  सी बातबात में  ‘तो    क्या…?’ बोलने वाली अनन्या  की न तो  उम्र  इतनी थी  ,न उसमें इतनी   समझ ही  थी कि वह उसकी आँखों के  भावों   को  जान सके और  चेहरे  को  पढ़  सके…और उसकी उम्र   भी इतनी कहाँ   थी कि वह  अनन्या  जितनी छोटी, मासूम  - सी लड़की  का  हाथ पकड़   जाकर  कह सके कि‘‘तुम   बहुत  सुंदर हो’’   या‘‘ तुम मुझे  बहुत अच्छी लगती  हो’’।

बस यही दो   वाक्य थे  जो उसके  मस्तिष्क   में  गूंजते     थे   परंतु उसकी   उन्हें   कहने की हिम्मत नहीं पड़ती  थी।  वह इतनी बातूनी और  चंचल थी  कि बहुत  संभव था  कि वह प्रति उत्तर में   कह देती‘‘सुंदर   तो मैं    हूँ…तो क्या?’’वह   ऐसी  ही थी। चंचल,   बातूनी और अपनी सुंदरता  व परिवार   की  सम्पन्नता  के दंभ   या स्वाभिमान से  भरी…छलकती -सी लड़की।  इसमें उसका  कोई  दोष  भी नहीं   था ; क्योंकि बचपन से ही अपनी सुंदरता  की  बातें सुनते  हुए  ही  वह   बड़ी   हुई  थी।   लेकिन  पहली बार   देखने पर ही अनन्या   का  यह कहना ‘‘तेरे पापा  बहुत   ही हैण्डसम   और यंग  है’’ उसे हमेशा  इस अनजानी  राह पर आगे   बढ़ने के  लिए प्रेरित  करता - सा लगता।

तीन  माह तक  प्रेम  और   शारीरिक   आकर्षक के बीच   के अंतर की  जद्दोजहद से गुजरने  के पश्चात कल उसे  मौका मिल ही गया  जब अनन्या को  रात  ज्यादा हो  जाने पर उसे  कार में   घर  छोड़ने   जाना पड़ा।  सब कुछ अप्रत्याशित   था   उसके लिए।

‘‘तुम  मुझे बहुत अच्छी लगती  हो  अनन्या’’ उसने हिम्मत करके  उसे  बोल ही दिया।

‘‘तो  क्या…?।आप भी  मुझे  बहुत  अच्छे लगते  हो…।  पहले  दिन  से ही’’-अनन्या ने अपनी सीट बेल्ट खोली  और   उसके गाल पर एक लम्बा ‘किस’  रसीद कर दिया।

सब कुछ इतनी  जल्दी घट  जाएगा  और इतना  अप्रत्याशित,   इसकी उसने कल्पना  भी नहीं की   थी।  उसे लगा  वह  खुशी  से पागल  हो   जाएगा।

‘‘पहली नजर  में   ही  मुझे तुमसे प्यार  हो  गया था’’उसने  प्यार  से अनन्या का हाथ पकड़ लिया-‘‘ पर तुम मुझसे इतनी  छोटी  हो  कि मेरी हिम्मत   ही  नहीं  पड़ती  थी कि तुम्हें कह सकूँ  कि मैं तुम्हें     प्यार करता हूँ।’’

‘‘छोटी  हूँ  तो  क्या?  हमारे मैथ्स के टीचर राकेश सर तो आपसे भी   बड़े  हैं। सुरभि और राकेश  सर भी  तो  आपस  में  बहुत प्यार करते हैं।  वो  तो   आपस  में …’

उसने एक झटके से अनन्या का हाथ  छोड़  दिया।  ‘‘सुरभि’’…शब्द उसके  दिमाग में फँस _सा गया।

‘‘प्यार ही  तो करते हैं  तो  क्या…?’’ अनन्या  उसी  मासूमियत से  उसका  चेहरा देखने  लगी।

सुरभि  उसकी अपनी बेटी  थी।

-0-कुमार   शर्मा ‘अनिल’ -0-

संपर्क : म नं 46,  रमन एनक्लेव, 
छज्जू  माजरा, 
खरड़ सेक्टर–117,    
ग्रेटर मोहाली–140301  (पंजाब)

11 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार 31 जुलाई 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com आप सादर आमंत्रित हैं ,धन्यवाद! "एकलव्य" 

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  2. जब बात घूम-फिर कर अपनों पर आकर रूकती जाती है
    तो अच्छे-अच्छों के होश ठिकाने लगने में देर नहीं लगती है

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  3. hosh thikaane lagne me jyada der nahee lagtee . aajkal bachchon ko dekhkar bhee purush unmuktata kee udan bharne lagte hai.

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  4. बढ़ती स्वच्छंदता और खुलेपन ने मासूम बच्चों के बचपन को छीन लिया है । जहाँ बच्चे जानते तक नहीं कि वे क्या कह और कर रहे हैं वहाँ वयस्कों की ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती है । होशोहवास में रहकर ही हर रिश्ता निभाया जाए,अपनापन जताया जाए....शिक्षाप्रद कहानी ।

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  5. आपकी रचना ने सोचने पर मजबूर कर दिया है
    आत्मा को मानो झकझोर दिया है ।
    बहुत अच्छा इन विषयों पर भी चर्चा अवश्य होनी चाहिए ।

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  6. जीवन का व्यवहारिक सन्देश देती सुंदर रचना ---

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