रविवार, 23 जुलाई 2017

एकलव्य की विडम्बना.........राम कुमार आत्रेय


एकलव्य ने  गहन आत्मविश्वास के   साथ    गुरु   द्रोणाचार्य के कक्ष  में   अनुमति  माँगकर प्रवेश  किया। प्रवेश  करते ही  उसने   गुरु  द्रोणचार्य के   चरणों  को  स्पर्श   करते हुए नमस्कार किया।  द्रोणाचार्य  का हाथ आशीर्वाद  के  लिए अभ्यासवश जरा सा- ही ऊपर उठा था ; लेकिन एकलव्य के तन पर फटे–पुराने वस्त्रों  पर दृष्टि पड़ते ही  वह किसी मुर्दे  की तरह अपने पूर्व   के  स्थान पर गिरकर स्थिर    हो गया।

द्रोणाचार्य के   होठों   के बीच  से  एक अनचाहा–सा स्वर  निकला,  ‘‘कहिए   कैसे आना हुआ?’’

‘‘आपकी अकादमी  में    मैं   शस्त्र  विद्या  का ज्ञान प्राप्त करना  चाहता हूँ,    गुरुजी।  मुझे अकादमी में  प्रवेश दिलाकर कृतार्थ  करें।’’ एकलव्य के स्वर  में  निहित  विनम्रता गिड़गिड़ाहट में   परिवर्तित  होकर रह गई  थी।

‘‘तुम्हें   यहाँ  प्रवेश  नहीं दिया जा सकता बच्चे!’’  टका  –सा  उत्तर दिया था गुरु   द्रोण ने।

‘‘इस  प्रकार  इनकार मत कीजिए गुरु जी। पिछले जन्म  में तो   आपने मुझे भील  बालक होने  के कारण  प्रवेश  नहीं दिया था।  बाद में   आपको  गुरु मानकर मैंने  शस्त्र  विद्या में   स्वयं ही पारंगतता  हासिल   कर ली । इस पर आपने गुरु–दक्षिणा के  रूप में   मेरा   अंगूठा ही  माँग लिया था।  परन्तु मैंने  बाद में  घोर   तपस्या  की ताकि मैं   क्षत्रिय जाति में   जन्म लेकर आपसे शस्त्र विद्या सीख सकूँ।  मुझे क्षत्रिय  जाति में तो   जन्म नहीं मिला,   परन्तु   प्रभु ने   ब्राह्मण  के घर अवश्य जन्म दे  दिया।  ब्राह्मण तो सभी  जातियों   से  श्रेष्ठ  होता है   न गुरु जी। आप भी तो ब्राह्मण   ही  हैं।  इस बार मुझे  प्रवेश    दे  ही   दीजिए प्रभु।’’ एकलव्य द्रोणाचार्य  के  चरणों में   गिरकर गिड़गिड़ाने  लगा था।

‘‘सुनो बच्चे,   यदि तुम इस बार भील  बालक  के रूप  में   भी   यहाँ  प्रवेश लेने आते  तो भी   तुम्हें   मैं  प्रवेश   देने से इनकार नहीं  करता। मेरी विवशता   है   कि इस बार ब्राह्मण बालक होने  पर भी  यहाँ  प्रवेश  नहीं दे  पाऊँगा। कारण तुम्हारे  फटे  –पुराने वस्त्र।  बता  रहे हैं    कि तुम निर्धन  हो।  इसलिए।’’

एकलव्य भूल   गया था  कि गुरुजनों  की बात  काटना अशिष्टता  समझी जाती है।  वह स्वयं पर नियंत्रण   नहीं रख पाया।  बोल  पड़ा‘‘निर्धन  होना भी  पाप हो  गया,  गुरु जी?’’

‘‘बात यह है   एकलव्य अब इस अकादमी में   पढ़ने  वाले  छात्रा यु​धिष्ठिर,    अजु‍र्न,   भीम,तथा    दुर्योधन बनकर नहीं  बल्कि आईएएस,  आईपीएस, इन्जीनियर  तथा  डाक्टर बनकर राष्ट्र  की  सेवा करते हैं,   देश को चलाते   हैं।  इसके लिए वे  प्रति वर्ष  एक लाख दस हजार रुपये  छात्रावास शुल्क भी   चुकाते हैं।  प्रतिमास  पाँच हजार रुपये  शिक्षण  शुल्क तथा पाँच हजार रूपये   छात्रावास शुल्क भी   उन्हें   चुकाना   होता है।  क्या तुम ऐसा  कर सकते हो?’’

‘‘नहीं गुरुदेव। मेरे माता–पिता तो दो वक्त का भोजन ही मुश्किल से जुटा पाते  हैं।’’ ऐसा कहते  हुए एकलव्य की  गर्दन झुक  गई  थी।

‘‘यदि मैं   तुम   जैसे  निर्धन छात्र को  उनके   साथ   कक्षा   में   बिठाऊँगा    ,तो वे सब तुम्हारे साथ   बैठने से  इनकार कर देंगे।  छात्रों   के माता–पिता   भी   किसी अन्य अकादमी में   उन्हें प्रवेश दिलवाना   पसन्द करेंगे,  न कि मेरी  अकादमी में।  यह प्रश्न जाति का नहीं,  धन का है    बच्चे।  जाओ  किसी सरकारी विद्यालय में    प्रवेश लेकर   जो भी   सीखने   को मिले सीख लेना।  और   नहीं  तो  वे तुम्हें वे  तुम्हें  अँगूठा    लगाना   तो सिखा   ही देंगे। हाँ,  इस बार  तुम्हारा अँगूठा  नहीं  माँगूँगा।’’ द्रोण  ने   एकलव्य के समक्ष  स्थिति   पूरी तरह स्पष्ट  कर दी।

गत जीवन में अँगूठा    कटवाकर सहानुभूति अर्जित कर लेने वाला  एकलव्य समझ नहीं पा रहा था  कि अपने दाएँ   हाथ के अँगूठे  को स्वयं  काटकर फेंक   दे  अथवा  आयु  पर्यन्त व्यर्थ    में  ही उसका   बोझ  ढोता रहे।
-राम  कुमार आत्रेय

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राम  कुमार आत्रेय
864–ए/12,आजाद   नगर,
कुरुक्षेत्र  136119 हरियाणा

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