शनिवार, 1 जुलाई 2017

थैंकू भैया....डॉ. आरती स्मित


वह माँ के साथ ज़बरन पाँव घसीटती चली जा रही थी। उसकी नज़रें बार-बार सड़क के दोनों ओर सजी दुकानों पर जा-जाकर अटक जातीं। मन हिलोर मारता कि माँ से कुछ कहे, मगर उसे डर था कि माँ से अभी कुछ कहने का मतलब यहीं बीच सड़क पर मार खाना होगा। यों भी, आज माँ का मूड कुछ ठीक नहीं, कल मालकिन ने ताकीद की थी, देर न करना, मगर देर हो ही गई, इसलिए काम में हाथ बँटाने को माँ उसको भी ज़बर्दस्ती साथ ले जा रही थी। अबीर~, गुलाल के रंग-बिरंगे पैकेट उसे बुलाते, तरह-तरह के रूपों वाली पिचकारियाँ, गुब्बारे सब उसे उसे इशारा करते से लगते। वह टूटी चप्पल घसीटती अधमरी सी चलती रही।
"अरी,चल ना! का हुआ, पाँव में छाले पड़ गए का.... एक तो ऐसे ही एतना देर हो चुका, जाने मालकिन का पारा केतना गरम होगा? परवी नै दी तो का फगुआ का बैसाखी। सारी भी तो दे के खातिर बोले रही, बिटवा का उतारन भी। चल न तुमको साथ काम करते देखेगी तो मन पसीजेगा जरूर, कुछ न कुछ दइए देगी।"
माँ बड़बड़ाती हाथ खींचती चलती रही।
"गली के मोड़ पर पहले पचमंज़िला मकान मालकिन का ही तो है। हे भगवान! उसका बेटा घर में न हो! केतना तंग करता है हमको।'' नौ वर्षीया निक्की ने मन ही मन ईश्वर को याद किया। कभी मंदिर गई नहीं, भगवान स्त्री हैं या पुरुष, उसको भ्रम बना हुआ है, मगर जब मुसीबत नज़र आती है,वह झट से भगवान को पुकार लेती। मालकिन बोली की कड़ी थी, मगर उसे कभी डाँटा नहीं, माँ को ज़रूर डाँटती कि इसे स्कूल भेजा कर! घर में बिठाकर अपने जैसा बनाएगी क्या?" उसे मालकिन से डर नहीं लगता मगर उसके बेटे ओम से लगता है, वह हमेशा छेड़ता रहता। उससे थोड़ा बड़ा है तो का? अकड़ू कहीं का!"
चप्पल उतार कर अभी बैठक में क़दम रखा ही था कि ओम दिख गया। वह सकपकाती हुई माँ के बगल जा खड़ी हुई।
"जा सीढ़ियों पर झाडू लगा दे, हम आते हैं कमरा में झाड़ू लगाकर।" वह हिली नहीं, सकपकाई सी खड़ी रही रही।
"अरी का हुआ, सुनाई कम देत है का?" माँ धीमी आवाज़ में मगर रोष में बोली।
"वो - वो- " वह हकला गई।
"चल जा, जल्दी काम कर,"कह कर माँ अंदर कमरे में चली गई। ओम चुपचाप कब उसके पीछे खड़ा हो गया, उसे पता ही न चला। अचानक उसे पाकर वह भीतर तक सिहर गई। ओम का हाथ पीछे था। "अब फिर यह मेरे बाल खींचेगा या चिकोटी काटेगा, हे भगवान का करें? आज तो चिल्ला कर रोने लगेंगे हम, मालकिन को पता चल जाएगा कि ...."
"निक्की," वह आगे सोच पाती, तभी ओम ने धीरे से उसे पुकारा और हाथ आगे बढ़ा दिया। उसके हाथ में रंग और अबीर पुड़िया की थैली और प्यारी-सी पिचकारी थी।
"यह तुम्हारे लिए।"
" नहीं-नहीं हमको नहीं चाहिए।" वह छिटककर दूर जा खड़ी हुई, तभी मालकिन कमरे में आ गई ।
"ले लो बेटा! भैया ने तुम्हारे लिए ख़रीदा है।" वह हैरान होकर कभी रंग और पिचकारी देखती, कभी ओम और मालकिन को। "तो क्या ओम उसे छोटी बहन समझ कर उसे तंग करता था, यही बात अच्छे से समझा भी सकता था, डरा कर रख दिया हमको" वह मन ही मन बुदबुदाई। साँवले चेहरे पर मुस्कान खिली और गुलाबी रंग निखर आया। होंठ हिले और बोल फूटे, "थैंकू भैया!"








-डॉ. आरती स्मित

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