सोमवार, 21 अप्रैल 2014

जुगाड़............मनीषा साधू










आज बुलाया है दोस्तों ने
"बैठेंगे मिल के चार यार.." स्टाईल में

सोच रहे हैं, क्या-क्या करेंगे तैयारियाँ
कोई बनायेगा बहानें घर में
’वर्कलोड’ के
कोई देगा और कारण ओवरटाईम का

लायेगा कोई ख़ास ब्रांड
विलायत से गिफ़्ट आया
और बड़ों का शरबत बताकर
बीवी के माध्यम से बच्चों से बचाया गया

किसी के खाली पड़े दफ़्तर में
पहले ही पहुँच चुके होंगे
दराज में काँच के गिलास
इसे करना है अब बाकी का ’जुगाड़’

ऑफ़िस खतम होने के इंतज़ार में
ये जिये जा रहा है बाद वाले पल
शर्ट की तरह
यह भी अस्त-व्यस्त हो गया है,
इन दिनों कि तरह
सोच रहा है, थोड़ा समय निकाल कर
टी-शर्ट डाल लेता, या डिओ ही मार आता थोड़ा
पर घर जा कर आने की कल्पना ही
उसका उत्साह खतम करती
वही बीवी, वही घर, वही बच्चें, वही माँगें,
और वही ’वह’.. खुशनसीब पापा बना हुआ
प्यारी सी बीवी का प्यारा सा पति..

वो हाथ से ही बाल ठीक करता है
टेबल पर रखे काँच में देखकर
हाथों से कमीज की सिलवटें साफ़ करता
जैसे मन की ही कर रहा हो

तसल्ली देता अपने आपको
कि आज भी वह
कॉलेज के दिन खतम करता
नौजवान ही तो है
तुलना करता है दोस्तों के ज़रा
ज़्यादा दिखाई देते गंजेपन से
अपने बढ़ते हुये माथे की

कल्पना से ही नाप लेता है
सब के पेट के घेरे इंचों में
और फिर
खुशनसीब दोस्त बना फिरने का
उत्साह बटोरता है मन में
एक-दूसरे को चिढ़ाने के
लिये वही पुराने नाम लडकियों के
दोहराता है मन में,
और वही एक-दूसरे को लजाते किस्से

और धीमे पड़ते ठहाके, शादी की बातें आते-आते
आज का दिन तो बातों में भी
दुबारा जीना नहीं चाहता कोई..
सब ठीक-ठाक कर
बस निकलने को उठता है
समय की इस जेल से

तो फोन बज उठता है

’सुनों पप्पू के पापा...
आज जल्दी घर आना होगा,
माँ-बापू आये है गाँव सें अचानक..’
अचानक ही तो हमेशा उसके अरमानों पर..
सोचते सोचते झटक देता है सर
कुर्सी में सुन्न सा बैठ
हाथ मुँह के सामने धर;
साँस छोड़कर देखता है..

नहीं छुपा सकेगा...
बापू की नाक
आज भी बड़ी तेज़ है!
बड़े यत्न से किया आज के दिन का ’जुगाड़’
वही दराज में बंद कर देता है

और खुशनसीब बापू का बेटा
एक बार फिर
घर की ही ओर मुड़ता है
-मनीषा साधू
स्रोतः साहित्य कुंज 
http://www.sahityakunj.net/ 

मंगलवार, 15 अप्रैल 2014

क्यों तेरे हाथों से मेरी अंगुली छूट गई...........लक्ष्मी नारायण खरे





मां क्यों तू मुझसे रूठ गई
क्यों तेरे हाथों से मेरी अंगुली छूट गई
क्यों तेरी ममता पे मेरा अधिकार नहीं
क्यों बेटों के जितना मुझपे तेरा प्यार नहीं
पराई नहीं मैं अपना के देखो मां
अंश हूं तुम्हारा गले लगा के देखो मां
कैसे समझ लिया तूने तेरी किस्मत फूट गई
क्यों तेरे हाथों से मेरी अंगुली छूट गई।

नैन है बेटा तो बेटी है दृष्टि
निर्माण है बेटा तो बेटी है सृष्टि
बेटी बिन कैसे बहू तुम लाओगी
कैसे बोलो फिर वंश तुम चलाओगी
क्यों बेटी की ममता-बेल तेरे हृदय में सूख गई
क्यों तेरे हाथों से मेरी अंगुली छूट गई।

बेटा है भाग्य तो बेटी विधाता
बेटा है उत्पत्ति तो बेटी है माता
बेटा है गीत तो बेटी संगीत
बल है बेटा तो बेटी है जीत
बेटी के प्रेम की नैया क्यों भेदभाव में डूब गई
क्यों तेरे हाथों से मेरी अंगुली छूट गई।

शब्द है बेटा तो बेटी है अर्थ
जाति है बेटा तो बेटी है धर्म
दीपक है बेटा तो बेटी है ज्योति
हीरा है बेटा तो बेटी है मोती
आज संभलने से पहले मां तेरी बेटी टूट गई
क्यों तेरे हाथों से मेरी अंगुली छूट गई। 


- लक्ष्मी नारायण खरे

रविवार, 13 अप्रैल 2014

लोकतंत्र के डंके पे, मारो ऐसी चोट...........विशाल डाकोलिया



कैसे बीतेंगे आने वाले पाँच बरस,
यह तय करेगा आपका एक वोट,
फिर ना कोई सोए भूखा,
....... कि लोकतंत्र के डंके पे, मारो ऐसी चोट ।

अब ना हो ऐसे चीर हरण,
ना शीश कटें जवानों के,
हर खेत में लहके धानी चुनर,
ना लटके धड़ किसानों के ।
....... कि लोकतंत्र के डंके पे, मारो ऐसी चोट ।

अब ना कोई लूट सके,
इस धरा के खजानों को,
अब ना कोई बाँट सके,
भजनों को अजानों को।
........ कि लोकतंत्र के डंके पे, मारो ऐसी चोट ।

निश्चल, निर्भय, शिक्षण हो,
हर बेटी बेटे का अधिकार,
कोई ना छीने अपने हक़,
कांपे थर-थर भ्रष्टाचार ।
........ कि लोकतंत्र के डंके पे, मारो ऐसी चोट ।

हो अश्वमेध फिर विश्व पटल पर,
भारत के अरमानों का,
मिटे जाल सूद, ऋणों का,
डरने और धमकाने का,
....... कि लोकतंत्र के डंके पे, मारो ऐसी चोट ।

देख संभलकर चलना रे,
ओ लोकतंत्र की सेना रे,
पग-पग बैठे लूटने वाले,
बनकर तोता मैना रे,
...... कि लोकतंत्र के डंके पे, मारो ऐसी चोट ।

ना हो बेकार, तेरी मोहर,
तू दिखला दे ऐसा जौहर,
बन पारखी चुन ऐसा राजा रे,
हो न्याय, खुशियों के नौबत बाजा रे,
........ कि लोकतंत्र के डंके पे, मारो ऐसी चोट ।


-विशाल डाकोलिया
(साभारः वेब दुनिया )


शुक्रवार, 14 मार्च 2014

होली के रंग.........अम्बरीश



 
भीनी भीनी मोरी चुनरिया
कान्हा की रंग गई चदरिया

चांदी की थाली अबीर-रोली सजाई
माथे पे बिंदिया, काजल नैना रचाई

राधा संग रसिया जी आओ
पान बताशा भोग लगाओ
कजरी गाओ धूम मचाओ
तन-मन उमंगपिय होली मनाओ

झांझ बजी खंजड़ी बजी खड़ताल
मन तरंग चंदन सजी,तबला झपताल

अंग-अनंग बसंती रची होली नूतन रंग
चुनरी अम्बरीश से सने छंदो की भंग

रंगरेजन की नांद में कैसे उआंसो जाय
ढोल-नंगाड़ो का हुड़दंग
मस्त-मलंग हुई जाय...

-अम्बरीश
बुधवार को प्रकाशित मधुरिमा की कविता

रविवार, 16 फ़रवरी 2014

How Indian Doctors लूट Patients......Prof. B. M. Hegde,

How Indian Doctors Loot Patients.




Most of these observations are either completely or partially true. Corruption has many names, and one of civil society isn't innocent either. Professionals and businessmen of various sorts indulge in unscrupulous practices. I recently had a chat with some doctors, surgeons and owners of nursing homes about thetricks of their trade. Here is what they said

1) 40-60% kickbacks for lab tests. When a doctor (whether family doctor / general physician, consultant or surgeon) prescribes tests - pathology, radiology, X-rays, MRIs etc. - the laboratory conducting those tests gives commissions. In South and Central Mumbai -- 40%. In the suburbs north of Bandra -- a whopping 60 per cent! He probably earns a lot more in this way than
the consulting fees that you pay.

2) 30-40% for referring to consultants, specialists & surgeons. When your friendly GP refers you to a specialist or surgeon, he gets 30-40%.

3) 30-40% of total hospital charges. If the GP or consultant recommends hospitalization, he will receive kickback from the private nursing home as a percentage of all charges including ICU, bed, nursing care, surgery.

4) Sink tests. Some tests prescribed by doctors are not needed. They are there to inflate bills and commissions. The pathology lab understands what is unnecessary. These are called "sink tests"; blood, urine, stool samples collected will be thrown.

5) Admitting the patient to "keep him under observation". People go to cardiologists feeling unwell and anxious. Most of them aren't really having a heart attack, and cardiologists and family doctors are well aware of this. They admit such safe patients, put them on a saline drip with mild sedation, and send them home after 3-4 days after charging them a fat amount for ICU, bed charges, visiting doctors fees.

6) ICU minus intensive care. Nursing homes all over the suburbs are run by doctor couples or as one-man-shows. In such places, nurses and ward boys are 10th cl-ass drop-outs in ill-fitting uniforms and bare feet. These "nurses" sit at the reception counter, give injections and saline drips, perform ECG's, apply dressings and change bandages, and assist in the operation theatre. At night, they even sit outside the Intensive Care Units; there is no resident doctor. In case of a crisis, the doctor -- who usually lives in the same building -- will turn up after 20 minutes, after this nurse calls him. Such ICU's admit safe patients to fill up beds. Genuine patients who require emergency care are sent else where to hospitals having a Resident Medical Officer (R M O) round-the-clock.

7) Unnecessary caesarean surgeries and hysterectomies. Many surgical procedures are done to keep the cash register ringing. Caesarean deliveries and hysterectomy (removal of uterus) are high on the list. While the woman with labour -pains is screaming and panicking, the obstetrician who gently suggests that caesarean is best seems like an angel sent by God! Menopausal women experience bodily changes that make them nervous and gullible. They can be frightened by words like " and "fibroids" that are in almost every normal woman's radiology reports. When a gynaecologist gently suggests womb removal "as a precaution", most women and their husbands agree without a second's
thought.

8) Cosmetic surgery advertized through newspapers. Liposuction and plastic surgery are not minor procedures. Some are life-threateningly major. But advertisements make them appear as easy as facials and waxing. The Indian medical council
has strict rules against such misrepresentation. But nobody is interested in taking action.

9) Indirect kickbacks from doctors to prestigious hospitals. To be on the panel of a prestigious hospital, there is give-and-take involved. The hospital expects the doctor to refer many patients for hospital admission. If he fails to send a certain number of patients, he is quietly dumped. And so he likes to admit patients even when there is no need.

10) "Emergency surgery" on dead body. If a surgeon hurriedly wheels your patient from the Intensive Care Unit to the operation theatre, refuses to let you go inside and see him, and wants your signature on the consent form for "an emergency
operation to save his life", it is likely that your patient is already dead. The "emergency operation" is for inflating the bill; if you agree for it, the surgeon will come out 15 minutes later and report that your patient died on the operation table. And then, when you take delivery of the dead body, you will pay OT charges,anaesthesiologists charges, blah-blah-

Doctors are humans too. You can't trust them blindly. Please understand the difference.

Young surgeons and old ones. The young ones who are setting up nursing home etc. have heavy loans to settle. To pay back the loan, they have to perform as many operations as possible. Also, to build a reputation, they have to perform a large number of operations and develop their skills. So, at first, every case seems fit for cutting. But with age, experience and prosperity, many surgeons lose their taste for cutting, and stop recommending operations.

Physicians and surgeons. To a man with a hammer, every problem looks like a nail. Surgeons like to solve medical problems by cutting, just as physicians first seek solutions with drugs. So, if you take your medical problem to a surgeon first, the chances are that you will unnecessarily end up on the operation table. Instead, please go to an ordinary GP first.


Prof. B. M. Hegde,
MD, FRCP, FRCPE, FRCPG, FRCPI, FACC, FAMS.
Padma Bhushan Awardee 2010.

Editor-in-Chief, The Journal of the Science of Healing Outcomes,
Chairman, State Health Society's Expert Committee, Govt. of Bihar, Patna.
Former Prof. Cardiology, The Middlesex Hospital Medical School, University of London,
Affiliate Prof. of Human Health, Northern Colorado University,
Retd. Vice Chancellor, Manipal University,
"Manjunath", Pais Hills, Bejai.
MANGALORE-575004. India.

रविवार, 9 फ़रवरी 2014

धीरे से उसको गुन-गुना लूँ तो चले जाना........राहुल भारद्वाज



हाल-ऐ-दिल अपना सुना लूँ तो चले जाना
तुमको हमराज़ बना लूँ तो चले जाना

कब तलक छुपाउंगा अपनी उल्फत तुमसे
इकरार- ऐ-मोहब्बत जो कर लूँ तो चले जाना

शर्म-ओ-हया से रुख पर जैसे बिखरी ज़ुल्फ़े
उनको रुख पर मैं सजा लूँ तो चले जाना

तेरे हुस्न पर फ़िदा है यहाँ दीवाने कई
तुम को नज़रो में छुपा लूँ तो चले जाना

जाम बहोत पिये तेरी कातिल नज़रो से मैंनें
एक जाम तुझे होठों से पिला लूँ तो चले जाना

एक मुद्दत से प्यासा हूँ में तेरी चाहत का
तुझ को एक बार सीने से लगा लूँ तो चले जाना

तुम मुझ को ही चाहो और दुनिया भुला दो
जादू ये इश्क का चला लूँ तो चले जाना

तुम को दिल में बसा कर लिखी है यह “ग़ज़ल”
धीरे से उसको गुन-गुना लूँ तो चले जाना
- राहुल भारद्वाज

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

बड़े काम की चीज है धनिया.... बलवीर की प्रस्तुति

बड़े काम की चीज है धनिया
सब्जी का स्वाद बढ़ाएँ
और देवी यशोदा के मित्र बलवीर जी ने इसका एक और उपयोग 
शेयर किया उससे
सो प्रस्तुत है...


Years pass by and our kidneys are filtering the blood by removing salt, poison and any unwanted entering our body. With time, the salt accumulates and this needs to undergo cleaning treatments and how are we going to overcome this?

It is very easy, first take a bunch of parsley or Cilantro

( Coriander Leaves ) and wash it clean
Then cut it in small pieces and put it in a pot and pour clean water and boil it for ten minutes and let it cool down and then filter it and pour in a clean bottle and keep it inside refrigerator to cool.

Drink one glass daily and you will notice all salt and other accumulated poison coming out of your kidney by urination also you will be able to notice the difference which you never felt before.

Parsley (Cilantro) is known as best cleaning treatment for kidneys and it is natural!

सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

हे वीणावादिनी, तुझको नमन करता हूँ मैं..........विभोर गुप्ता

 हे वीणावादिनी, तुझको नमन करता हूँ मैं,
तन, मन, धन, तुझको अर्पण करता हूँ मैं


माँ सरस्वती, तेरे चरणों में, मेरा केवल एक निवेदन है
ना कांपे हाथ लिखते-लिखते सच को, बस यही आवेदन है
चाँदी के सिक्कों में बिके कविता, ऐसी मेरी चाह नहीं है
बैठूं राज्यसभा के अंदर जाकर, वो भी मेरी राह नहीं है



करना दया माँ शारदे, मेरी वाणी को देना इतना बल
स्वपन में भी पास ना भटके, झूठ, मक्कारी, कपट व छल
देना वरदान माँ मुझको, मेरी लेखनी कभी भी मरे नहीं
सत्ता और सिंहासन के आगे भी, लेखनी मेरी डरे नहीं



शब्द-शब्द कविता का, देश, धर्म व संस्कृति पर अर्पित हो,
मेरी कलम, मेरी वाणी, सदैव मातृभूमि के प्रति समर्पित हो

इतना आशीष देना माँ, कलम मेरी तम को ललकार हो,
चाहे जल कर भी, करे रोशनी वहां, जहाँ पर अंधकार हो



हे विद्यादायिनी, वीणावादिनी, देना सभी को इतना ज्ञान,
मिट जाए तम इस धरा से, हो समाज का कल्याण

देना बुद्धिबल सभी को ऐसा, ना कोई किसी पर हावी हो,
'वसुधैव कुटुम्बकम' का शब्दार्थ, पूरे विश्व पर प्रभावी हो



हे वीणावादिनी, तुझको नमन करता हूँ मैं,
तन, मन, धन, तुझको अर्पण करता हूँ मैं

-विभोर गुप्ता
www.kumarvibhor.blogspot.in

गुरुवार, 30 जनवरी 2014



Photo: मुझे तोहमत कोई देकर जुदा होता तो अच्छा था 
कि हममें से कोई एक बेवफा होता तो अच्छा था .....

तड़प नज़दीक आने की दिलों में उम्र भर रहती 
हमारे बीच थोडा फासला होता तो अच्छा था ........

बज़ाहिर शक़्ल पर मेरी बहुत से झूठ लिक्खे थे 
मेरे भीतर कोई आकर मिला होता तो अच्छा था ......

समझती सब थी तेरी बातों से,आँखों से,चेहरे से 
मगर ऐ काश तूने कह दिया होता तो अच्छा था.......

लतीफों का चलन,बदहाली से दम तोड़ते अशआर.....
मैं एक शायर न होकर मसखरा होता तो अच्छा था..........
(नए मरासिम में प्रकाशित)

                     सचिन अग्रवाल

मुझे तोहमत कोई देकर जुदा होता तो अच्छा था

कि हममें से कोई एक बेवफा होता तो अच्छा था  


तड़प नज़दीक आने की दिलों में उम्र भर रहती

हमारे बीच थोडा फासला होता तो अच्छा था 


बज़ाहिर शक़्ल पर मेरी बहुत से झूठ लिक्खे थे

मेरे भीतर कोई आकर मिला होता तो अच्छा था 


समझती सब थी तेरी बातों से,आँखों से,चेहरे से

मगर ऐ काश तूने कह दिया होता तो अच्छा था


लतीफों का चलन,बदहाली से दम तोड़ते अशआर

मैं एक शायर न होकर मसखरा होता तो अच्छा था


(नए मरासिम में प्रकाशित)


सचिन अग्रवाल

 


मंगलवार, 28 जनवरी 2014

जीने की कोशिश जारी है............चंद्रसेन विराट

प्रिय किसको भुजपाश नहीं है
इसकी किसे तलाश नहीं है।

जीने की कोशिश जारी है
जीने का अवकाश नहीं है।

अनगढ़ता-सौंदर्य मूर्ति की
तीखी तेज तराश नहीं है।

बँट तो चुकी धरा यह पूरी
बँटा अभी आकाश नहीं है।

फूल नुमाइश में सब शहरी
इनमें ग्राम्य पलाश नहीं है।

चौंके सारे मित्र आधुनिक
मेरे घर में ताश नहीं है।

मेरा कत्ल हुआ, मिल पाई
लेकिन मेरी लाश नहीं है।

सृजन नहीं है किस विनाश का
किस निर्मिति का नाश नहीं है।

जला रही वह आग कि जिसमें
लपटें मगर प्रकाश नहीं है।

वह भी क्या उपलब्धि कि कोई
कहने को शाबाश नहीं है।

इतना मानव-पतन किंतु कवि
दुःखी जरूर, हताश नहीं है।

-चंद्रसेन विराट 

सोमवार, 27 जनवरी 2014

हमारे शहर में अफ़सर नयी जो आई है..............सचिन अग्रवाल 'तन्हा'



हवा जो नर्म है ,साज़िश ये आसमान की है
वो जानता है परिंदे को ज़िद उड़ान की है

मेरा वजूद ही करता है मुझसे ग़द्दारी
नहीं तो उठने की औकात किस ज़ुबान की है

हमारे शहर में अफ़सर नयी जो आई है
सुना है मैंने, वो बेटी किसी किसान की है

अभी भी वक़्त है मिल बैठकर ही सुलझालो
अभी तो बात फ़क़त घर के दरमियान की है

जवान जिस्म से बोले बुलंदियों के नशे
रहे ख़याल की आगे सड़क ढलान की है

तेरी वफ़ा पे मुझे शक है कब मेरे भाई
मिला है मौके से जो बात उस निशान की है

ये मीठा नर्म सा लहजा ही सिर्फ उसका है
अदब से झुकने की तहज़ीब खानदान की है

सचिन अग्रवाल 'तन्हा'

पता नहीं तुम क्या सोचोगे" .............उत्पल कान्त मिश्र



"आसमान में देखा है
वो कमर" ................... !!

"हुं" ..................... !!

"कितना भोला दिखता है न
श्वेत, सुन्दर, शीतल" ........... !!

"हुं" ..................... !!

"इसके आते ही क्यूँ
मन में वेग होता है" ................ !!

"उन्न" .............. !!

"ये पूरा होता है तो
क्यों मुझमें उन्माद आता है" ............ !!

"क्या कहते हो
तुमको भी
मैं तो चुप ही थी
पता नहीं तुम क्या सोचोगे" ................ !!

"कहती तो, कभी अपनें मन की बात
क्यों न बनती हो तुम, मरासिम" ................ !!

"मैं, मरासिम".................... ??

"हाँ ! मरासिम !
श्वेत, सुन्दर, शीतल" ................ !!

"ओफ, ओ "...............!!

"अंतर है थोड़ा सा बस
आसमान के और मेरे मरासिम में " ............ !!

"हुं, हुं " ....................... !!

"तुम्हारी धवल चाँदनी में
मन रुकता है, उद्वेग थमता है" .............. !!

"बाप रे" ....................... !!

"वो देखो, इस नदी की लहरों को
कल - कल, कुल - कुल कर बलखाती
तुमको ही तो देख रही हैं" ........................... !!

"......................."

"मैं हूँ, नदी है, तुम हो:
और है दूर, वो सुनहरा चाँद
कितना शांत है सब
शीतल ! निर्मल ! तुम से ..................... !!

"चलो ना, अब चलते हैं
अन्धेरा भी आ गया है
नरभक्षी अब निकलेंगे
हम कैसे पहचानेंगे
आदमी की खाल पहन
हमसे, तुमसे ही दिखते हैं
चलो ना, अब चलते हैं" ......... !!

"ह्म्म्मम्म
काश ! होती धवल चाँदनी
इस धरती पर, तुमसी
मरासिम" ...................................... !!

उत्पल कान्त मिश्र
मुंबई, १५:१२
१९/११/२०११ 

http://utpalkant.blogspot.in/2011/10/blog-post_19.html

शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

चलो फुटपाथ पर चलकर कोई मिसरा उठाते हैं.....सचिन अग्रवाल

 
यही ज़िद है तो फिर हिस्सा सभी अपना उठाते हैं
अगर शबनम तुम्हारी है तो हम शोला उठाते हैं

जो हक़ के वास्ते सर अपने कटवाना ही गैरत है
तो ले दुनिया सर अपना और हम ऊंचा उठाते हैं

मुसलसल आँधियों को वरगलाना तुम रखो जारी
चिरागों की धधकती लौ का हम ज़िम्मा उठाते हैं

कई सुथरे घरानों की हक़ीक़त जानते होंगे
ये बच्चे रोज़ चौराहों से जो कूड़ा उठाते हैं

मुनासिब हो तो कितने हैं अना पर ज़ख्म गिन लेना
ये लो हम आज अपने आप से परदा उठाते हैं

किसी रिश्ते की जानिब फिर झुके जाते हैं ज़ेहन ओ दिल
चलो मुट्ठी में फिर एक रेत का दरिया उठाते हैं

चलो कुछ भूखे प्यासे बच्चों के चेहरे ग़ज़ल कर दें
चलो फुटपाथ पर चलकर कोई मिसरा उठाते हैं

('नये मरासिम' में प्रकाशित हो चुकी है)

सचिन अग्रवाल

गुरुवार, 23 जनवरी 2014

न शिकायत है, न ही रोए!..................प्रेमजी (अप्रवासी भारतीय)


ये उम्र तान करके सोए हैं,
थकान पांव-भर जो ढोए हैं।

किसी सड़क पे नहीं मिलती है,
सुबह जो गर्द में ये बोए हैं।

लोग कहते हैं कारवां चुप है,
सराय धुंध में समोए हैं।

नाव कब तक संभालते मोहसिम,
पहाड़ भी जहां डुबोए हैं।

रहन की छत है, ब्याज का बिस्तर,
न शिकायत है, न ही रोए हैं।

फफोले प्यार के निकल आए,
न जाने जिस्म कहां धोए हैं।

न कोई खौफ है अंधेरों से,
न कोई रोशनी संजोए है।

एक मुर्दा शहर-सा मौसम है,
एक मुर्दे की तरह सोए हैं।

ये कहानी कहीं छपे न छपे,
कलम की नोक हम भिगोए हैं।

-प्रेमजी (अप्रवासी भारतीय)

बुधवार, 22 जनवरी 2014

टूटने की यह कहानी..................विद्यानंदन राजीव




नींद टूटी और स्वर्णिम स्वप्न टूटे
थम नहीं पाई अभी तक
टूटने की यह कहानी!

सोचते जब चल पड़ें
परछाइयों का साथ छोड़ें
सामने अवरोध, उनकी
उठ रही बाहें मरोड़ें,

समय की घातक व्यवस्था
हौसलों को तोड़ देती
और गतिकामी चरण को
आँधियों में छोड़ देती,

किंतु अचरज, नहीं अब तक
जिन्दगी में हार मानी।

झेलती प्रतिरोध सारे
अस्मिता फिर भी बनी है
फिसल जाती, फिर संभालती
आस्था कितनी घनी है,

हर कदम रण-भूमि में है
और प्रतिपल का समर है
घात पर आघात सहकर
हौसला होता प्रखर है,

आग का दरिया, कमी है
राह पर घातक हिमानी!
थम नहीं पाई अभी तक
टूटने की यह कहानी!

-विद्यानंदन राजीव
सौजन्यः वेब दुनिया

 

शनिवार, 18 जनवरी 2014

मैं हारा अपनी आदत से................प्रमोद त्रिवेदी

मैं हारा
मैं हारा अपनी आदत से।

कहते हैं लोग- "यह गुलाम, अपनी आदत का।
मजबूर, अपनी आदत से"।
यह मेरी कमजोरी।


कहते हैं सब- "पा सकता है कोई भी ।
चाहे तो इस टेव से मुक्ति।
असंभव नहीं कुछ भी"।

सोचता किन्तु मैं,
इस सोच से अलग
बचेगा ही क्या,
छूट गई यदि मुझसे
मेरी आदत,

क्या मतलब रह जाएगा तब
मेरे होने का।


फूल खिलते हैं आदतन।
जानते हैं,
तोड़ लिए जाएंगे खिलते ही
या बिखर जाएंगे
पंखुड़ी-पंखुड़ी खिलते ही
तब भी कहां छोड़ा खिलना।
छोड़ा नहीं नदी ने बहना
खारे होने के डर से।


सुना है अभी-अभी
आदत से मजबूर तो गिरे गड्‌ढे में।
मरे,

अपने जुनून में।

मैं हंसा फिर
अपनी आदत के मुताबिक।

-प्रमोद त्रिवेदी

गुरुवार, 16 जनवरी 2014

बरसों बाद उसी सूने-आँगन में...........धर्मवीर भारती

बरसों बाद उसी सूने-आँगन में
जाकर चुपचाप खड़े होना
रिसती-सी यादों में पिरा-पिरा उठना
मन का कोना-कोना


कोने से फिर उन्हीं सिसकियों का उठना
फिर आकर बाहों में खो जाना
अकस्मात मंडप के गीतों की लहरी
फिर सन्नाटा हो जाना
दो गाढ़ी मेंहदी वाले हाथों का जुड़ना
कंपना, बेबस हो गिर जाना

रिसती-सी यादों में पिरा-पिरा उठना
मन का कोना-कोना
बरसों बाद उसी सूने-आँगन में
जाकर चुपचाप खड़े होना


-धर्मवीर भारती
मधुरिमा, बुधवार,15, जनवरी.2014

रविवार, 12 जनवरी 2014

बुलबुल को क्या सुने कोई उड़ जाते हैं हवास....मीर तकी `मीर’



अब की हज़ार रंग गुलिस्तां में आए गुल
पर उस बगैर अपने तो जी को न भाए गुल

नाचार हो "चमन में रहिए" कहूं जब
बुलबुल कहे है "और कोई दिन बराए-गुल"

बुलबुल को क्या सुने कोई उड़ जाते हैं हवास
जब दर्दमंद कहते हैं दम भर "हाय गुल"

क्या समझें लुत्फ़ चेहरों के रंगो-बहार का
बुलबुल ने और कुछ नहीं देखा सिवाए गुल

या वरफ़ उन लबों का ज़बाने-कलम पे "मीर"
या मुंह में अंदलीब के थे बर्ग-हाए-गुल

-मीर तकी `मीर’
...................
बराए-गुलः फूल(प्रियतमा), वरफ़ः प्रशंसा
अंदलीबः बुलबुल, बर्ग-हाए-गुलः फूलों की पंखुड़ियां
....................
मूल नामः मुहम्मद तकी
जन्मः 1724
अवसानः 1810
 


शनिवार, 11 जनवरी 2014

मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आएंगे.........दुष्यंत कुमार

 
मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आएंगे
इस बूढ़े पीपल की छाया में सुस्ताने आएंगे

हौले-हौले पांव हिलाओ जल सोया है छेड़ो मत
हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आएंगे

थोड़ी आँच बची रहने दो थोड़ा धुआं निकलने दो
तुम देखोगी इसी बहाने कई मुसाफिर आएंगे

उनको क्या मालूम निरूपित इस सिकता पर क्या बीती
वे आये तो यहां शंख सीपियां उठाने आएंगे

फिर अतीत के चक्रवात में दृष्टि न उलझा लेना तुम
अनगिन झोंके उन घटनाओं को दोहराने आएंगे

रह-रह आँखो में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी
आगे और बढ़े तो शायद दृष्य सुहानें आएंगे

मेले में भटके तो कोई घर पहुंचा जाता
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आएंगे

हम क्यों बोलें कि इस आंधी में कई घरौंदे टूट गये
इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जाएंगे

हम इतिहास नहीं रच पाए इस पीड़ा में दहते हैं
अब जो धारायें पकड़ेंगे इसी मुहाने आएंगे

-दुष्यंत कुमार
मधुरिमा, बुधवार, 8 जनवरी 2014

सोमवार, 6 जनवरी 2014

बारिश में कागज की नाव थी........अज्ञात (फेसबुक से प्राप्त)


एक बचपन का जमाना था,
जिस में खुशियों का खजाना था..

चाहत चाँद को पाने की थी,
पर दिल तितली का दिवाना था..

खबर ना थी कुछ सुबहा की,
ना शाम का ठिकाना था..

थक कर आना स्कूल से,
पर खेलने भी जाना था...

माँ की कहानी थी,
परियों का फसाना था..

बारिश में कागज की नाव थी,
हर मौसम सुहाना था..

अज्ञात (फेसबुक से प्राप्त)

रविवार, 5 जनवरी 2014

आत्मशक्ति पर निर्भर हो.............अनुपमा पाठक

मान-अभिमान से परे
रूठने-मनाने के सिलसिले-सा
कुछ तो भावुक आकर्षण हो !




किनारे पर रेत से घर बनाता
और अगले पल उसे तोड़-छोड़
आगे बढ़ता -सा
भोला-भाला जीवन दर्शन हो !





नमी सुखाती हुई
रूखी हवा के विरुद्ध
नयनों से बहता निर्झर हो !



परिस्थितियों की दुहाई न देकर
अन्तःस्थिति की बात हो
शाश्वत संघर्ष
आत्मशक्ति पर निर्भर हो !




भीतर बाहर
एक से...
कोई दुराव-छिपाव नहीं
व्यवहारगत सच्चाइयां
मन प्राण का दर्पण हो !




सच के लिये
लड़ाई में
निजी स्वार्थों के हाथों
कभी न आत्मसमर्पण हो !



-अनुपमा पाठक

बुधवार 1,जनवरी 2014 की मधुरिमा में प्रकाशित रचना

शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

गीत बनाने की जिद है....-यश मालवीय


दीवारों से भी बतियाने की जिद है
हर अनुभव को गीत बनाने की जिद है

दिये बहुत से गलियारों मे जलते हैं
मगर अनिश्चय के आंगन तो खलते हैं
कितना कुछ घट जाता है मन के भीतर ही
अब सारा कुछ बाहर लाने की जिद है

जाने क्यों जो जी में आया नहीं किया
चुप्पा आसमान को हमने समझ लिया
देख चुके भाषा का बैभव सारा
बच्चों जैसा अब तुतलाने की जिद है

कौन बहलता है अब परी कथाओं से
सौ विचार आते हैं नई दिशाओं से
खोया रहता एक परिन्दा सपनों का
उसको अपने पास बुलाने की जिद है

सरोकार क्या उनसे जो खुद से ऊबे
हमके तो अच्छे लगते हैं मंसूबे
लहरे अपना नाम-पता तक सब खो दें
ऐसा इक तूफान उठाने की जिद है..
---यश मालवीय

मधुरिमा में प्रकाशित रचना


गुरुवार, 2 जनवरी 2014

जल्दबाज़ी में......निर्मल आनन्द


जल्दबाज़ी में
छूट जाता है
कुछ न कुछ
कुछ न कुछ
हो जाती है गलतियां
हड़बड़ी में
पत्र लिखते हुए

नहीं रहती
चित्रकार के
चित्र में सफाई
कहीं फीके
कहीं गाढ़े
लग जाते हैं रंग
कट जाती है उंगलियां
सब्जी काटते-काटते

जब देखते हैं हम पलटकर
बीते दिनों के पन्ने
हमारी गलतियां
सबक की शक्ल में
मुस्कुराती हैं !

-निर्मल आनन्द